Book Title: Visheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman
Publisher: Rushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha

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Page 395
________________ विशेषाव कोव्याचार्य वृत्तौ संभिन्नज्ञानं // 39 // // 39 // 20525% संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सव्वओसव्वं / तं नथि जंन पासइ भूयं भव्वं भविस्संच॥नि.१२१॥ बाहिं जहा तहतो संभिन्नं सव्वपज्जवेहिं वा / अत्तपरनिव्विसेसं सपरप्पज्जायओ वावि // 1351 // संभिन्नग्गहणेण व दव्वमिह सकालपज्जवं गहियं / लोगालोग सव्वंति सवओ वित्तपरिमाणं // 1352 // तं पासंतो भूयाइं जं न पासइ तओ तयं नत्थि / पंचत्थिकायपज्जयमाणं नेयं जओऽभिहियं // 1353 / / तवनियमनाणरुक्खं आरूढो ज(य)जिणो अमियनाणी। एत्तोस परंपरओ एत्तो जिणपवयणुप्पत्ती।१३५४। निज्जुत्तिसमुत्थाणप्पसंगओ जाव पवयणुप्पत्ती। पासंगियं गयभियं वोच्छामि इओ उवग्यायं // 1355 // अच्छउतावुग्घाओ का पुण जिणप्पवयणप्पसूइत्ति।तं कित्तियाभिहाणं पवयणभिह को विभागो सो।१३५६। एयं पसंगसेसं वोत्तुमुवग्यायवित्थरंवोच्छं। तो सेसद्दाराई कमेण तस्संगहो चेमो // 1357 / / 'संभिन्न'मित्यादि / 'बाहिमित्यादि / सं-एकीभावेन भिन्नं संभिन्नं, किमुक्तं भवति ? इत्याह-यथा बहिस्तयाऽन्तः, घटं हि यथाऽ न्तरन्त्यप्रतरे पश्यत्येवं बाह्यान्त्यप्रतरेऽपि यावन्मध्यं, प्रतरद्वय इत्यर्थः। तथा सर्वपर्यायभिन्नं वा, संभिन्नमिति वर्तते, घटपरमाणून ह्यनन्तानन्तपर्यायानुविद्धान् पश्यतीत्यभिप्रायः, तथाऽऽत्मपरनिर्विशेषं वा संभिन्नं, यथाऽऽत्मानमेवं परमपि जानतः संभिन्नं दर्शनमुच्यते, स्वपरपर्यायभेदेन वा पश्यतः संभिन्नमिति गाथार्थः // 1350-51 / / 'संभिन्ने'त्यादि / अथवा संभिन्नमिति द्रव्यं गृह्यते, कोत्र भावार्थः 1, कालपर्यायौ हि तत्पर्यायौ, ताभ्यां समस्ताभ्यां, समन्तादा भिन्नं संभिन्नं, शेषं सुगमम् // 52 // 'तं'इत्यादि च / 'तवे'त्यादि / तदेवमुक्तेन ग्रन्थकलापाटोपेन 'अयं ति असौ जिनोमितज्ञानी, यस्तपोनियमज्ञानवृक्षमारूढः स उक्तः, तथा 'एत्तो' ति अतो MOHANKARACCACACCACAN 9E

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