Book Title: Visheshavashyak Bhashyam Purvarddha
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman
Publisher: Rushabhdev Keshrimal Shwetambar Samstha

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Page 426
________________ विशेषावका कोव्याचार्य वृत्ती // 422 // ISRAEROLKATA | कस्स न होही वेसो? अणब्भुवगओय निरुवगारी य।अप्पच्छंदमईओ पत्थियओ गंतुकामोय ।नि१३७। योग्या| भन्नइ अणभुवगओऽणुवसंपन्नो सुओवसंपयया / गुरुणो करणिज्जाइं अकुव्वमाणो निरुवगारी // 1456 // |5|| योग्याः अप्पच्छंदमईओ सच्छंदं कुणइ सव्वकज्जाइं / पत्थियओ संपत्थियबिइजओ निच्चगमिउव्व // 1457 / / गुरुशिष्याः गंतुमणो जो जंपइ नवरि समप्पउ इमो सुयक्खंधो / पढिउं सोउं च तओ गच्छं को अच्छती एत्थ 1 / 1458 // // 422 / / विणओणएहिं पंजलियडेहिं छंदमणुयत्तमाणेहिं / आराहिओ गुरुजणो सुयं बहुविहं लहुं देइ ।नि.१३८। विणओणओऽभिवंदइ पढए पुच्छइ पडिच्छए वा णं / पंजलियडोऽभिमुहो कयंजली पुच्छणाईसु // 1460 // 8 सद्दहइ समत्थेइ य कुणइ करावेइ गुरुजणाभिमयं / छंदमणुयत्तमाणो स गुरुजणाराहणं कुणइ // 1461 / / 'भग्गे'त्यादि भाष्यगाथा एकादश सुगमाः, प्रतीतार्थत्वात् // एवं तावदौत्सर्गिकंक्रममङ्गीकृत्य व्याख्यात्रा इव शिष्येणापि गुणवता | भाव्यम् // 1443-53 // अथापवादिकमाह-'अत्थी'त्यादि। इह स शिष्यो यतोऽर्थी गुरुर्नितरां भवत्यनिष्ठितार्थत्वात् 'तो' ततः 'विशेषतः' विशेषेण शिष्यो योग्योऽयोग्यो वा भण्यते, प्रयत्नाधारत्वात् , तत्रायोग्यस्तावदयम्-'कस्से'त्यादि // अथवा तत्रायोग्यस्तावदयं वक्ष्यमाणचेष्टित इति, एतदुक्तं भवति-शिष्येण हि सूत्राार्थिना कृत्यानामशेषकृत्यविधानोद्यतेन भवितव्यं, अन्यथा कस्येत्यादि, कस्य व्याख्यातुन भविष्यति 'द्वेष्यः' अप्रीतिकरः, शिष्य इति गम्यते, भविष्यत्येवेत्यभिप्रायः, किं सर्व एव ?, नेत्याह-'अनभ्युपगतः' श्रुतोपसंपदाऽनुपसंपन्नः, अनिवेदितात्मेत्यर्थः, उत्तरापेक्षया, अनुपसंपन्नोऽपि न सर्व एवासमाधिकरो भवतीत्यत आह-उपकतुं CCCCCCCCCCCCCE

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