Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ 12 और उसके भेद 105; गोत्रकी विविध व्याख्याएँ 106; कर्म- . . साहित्यके अनुसार गोत्रकी व्याख्या 108; एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न 110; यथार्थवादी दृष्टिकोण स्वीकार करनेकी आवश्यकता :12; गोत्रकी व्याख्याओंकी मीमांसा 114; गोत्रकी व्यावहारिक व्याख्या 12.1; उच्चगोत्र, तीन वर्ण और षटकर्म 123; एक भवमें गोत्रपरिवर्तन 130; नीचगोत्री संयतासंयत क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य 132; जैनधर्मकी दीक्षाके समय गोत्रका विचार नहीं होता 135; कुलमीमांसा 138-155 कुलके सांगोपांग विचार करनेकी प्रतिज्ञा 138 कुल और वंशक अर्थका साधार विचार 141; जैन परम्परामें कुल या वंशको महत्त्व न मिलनेका कारण 144; कुलशुद्धि और जैनधर्म 150; / जातिमीमांसा 155-173 मनुस्मृतिमें जातिव्यवस्थाके नियम 155; महापुराणमें जातिव्यवस्थाके नियम 157; उत्तरकालीन जैन साहित्यपर महापुराणका प्रभाव 159; जातिवादके विरोधके चार प्रस्थान 164; जातिवादका विरोध और तर्कशास्त्र 169; वर्णमीमांसा 174-197 षट्कर्मव्यवस्था और तीन वर्ण 174, सोमदेवसूरि और चार वर्ण 175; शूद्र वर्ण और उसका कर्म 182; वर्ण और विवाह 186; स्पृश्यास्पृश्यविचार 190; ब्राह्मणवर्णमीमांसा 197-201 ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्ति 197; ब्राह्मणवर्ण और उसका कर्म 198; एक प्रश्न और उसका समाधान 200; यज्ञोपवीतमीमांसा 201-208. महापुराणमें यज्ञोपवीत 201; पद्मपुराण और हरिवंशपुराण 204; निष्कर्ष 206;

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