Book Title: Uttaradhyayan Sutram
Author(s): Bhavvijay, Matiratnavijay,
Publisher: Sanmarg Prakashan
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उत्तराध्ययन
सूत्रम्
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११६२
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तु योत्कृष्टा कापोतायाः स्थिति: सैवास्या: समयाधिका जघन्या प्राप्नोति, तदत्र तत्त्वं तद्विदो वदन्तीति ।। ५३।। पद्मायाः स्थितिमाह -
लेश्यानाम जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिआ । जहण्णेणं पम्हाए, दस उ मुहुत्ताहिआई उक्कोसा ।।५४।। चतुस्त्रिशव्याख्या - अत्र 'सा उत्ति' सैव 'दस उत्ति' दशैव देवप्रस्तावात्सागरोपमाणि 'मुहुत्ताहिआइंति' पूर्वोत्तरभवसत्कान्तर्मुहूर्त्ताधिकानि, इयं च का
मध्ययनम् 8 जघन्या सनत्कुमारे, उत्कृष्टा बह्मलोके । आह-यदीहान्तर्मुहूर्त्तमधिकमुच्यते तदा पूर्वत्रापि किं न तदधिकमुक्तं ? उच्यते-देवभवलेश्याया एव तत्र ॥ का विवक्षितत्वात्, प्रतिज्ञातं हि 'तेण परं वोच्छामि, लेसाण ठिईउ देवाणंति' एवं सतीहान्तर्मुहूर्त्ताधिकत्वं विरुध्यते, नैवं, अत्र हि पूर्वोत्तरभवलेश्यापि का 6 "अंतोमुहत्तंमि गए, अंतमुहत्तंमि सेसए चेवत्ति" वचनाद्देवभवसम्बधिन्येवेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तमिति न विरोध इति भावनीयम् ।।५४ ।। शुक्लायाः । & स्थितिमाह -
जा पम्हाई ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिआ । जहण्णेण सुक्काए, तित्तीसमुहुत्तमब्भहिआ ।।५५।। Tai
___ व्याख्या - 'तित्तीसमुहत्तमब्भहिअत्ति' त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ताभ्यधिकानि सागरोपमाण्युत्कृष्टेति गम्यते, अस्या जघन्या लान्तकेऽपरा त्वनुत्तरेष्विति द्वाविंशतिसूत्रार्थः ।।५५ ।। उक्तं स्थितिद्वारं गतिद्वारमाह -
किण्हा नीला काऊ, तिण्णिऽवि एआ उ अहमलेसाओ । एआहिं तिहिंऽवि जीवो, दुग्गई उववजइ ।।५६।।
व्याख्या - अत्र 'तिण्णिवित्ति' तिस्रोऽपि अधमलेश्या अप्रशस्तलेश्याः, दुर्गतिं नरकतिर्यग्गतिरूपां उपपद्यते प्राप्नोति ।। ५६।। 16
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