Book Title: Upasakdashang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 10
________________ 19) इसी दरम्यान भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए राजगृह नगर में पधारे। उन्होंने अपने शिष्य गौतम स्वामी को कहा - मेरा अन्तेवासी महाशतक श्रावक जो पौषधशाला में संलेखना करके बैठा हुआ है। उसने रेवती को सत्य किन्तु अप्रिय वचन कहे हैं। श्रावक को जो बात सत्य (तथ्य) होते हुए भी दूसरे को अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय लगे ऐसा वचन बोलना नहीं कल्पता है। अतः तुम जाओ और महाशतक श्रावक से कहो कि इस विषय की आलोचना कर यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करे। भगवान् के उक्त कथन को स्वीकार कर गौतम स्वामी महाशतक श्रावक के यहाँ पधारे। श्रावक ने उन्हें वंदना नमस्कार किया और गौतम स्वामी के कथनानुसार भगवान् की आज्ञा को शिरोधार्य कर यथायोग्य आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त लिया। . इस प्रकार दस ही श्रावकों का जीवन हमारे लिए आदर्श रूप है। उन आदर्श श्रमणोपासकों के जीवन को संमुख रख कर हम अपनी आत्मपरिणति की ओर दृष्टिपात करे और यथाशक्ति अपने में रही कमजोरियों को निकालने का प्रयास करे तो हम भी आदर्श श्रमणोपासक बन सकते हैं। आज भी एक भवावतारी बनने में पंचम आरा बाधक नहीं है। ... दस ही श्रावकों ने चौदह वर्ष पूरे करके पन्द्रहवें वर्ष में कुटुम्ब का भार अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को संभला कर स्वयं विशेष साधना में लग गये। सभी ने बीस बीस वर्ष तक श्रावक पर्याय का पालन किया। अन्त में संलेखना संथारा करके सभी श्रावक पहले देवलोक में उत्पन्न हुए और वहाँ चार पल्योपम का आयुष्य पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वहाँ से मोक्ष पधारेंगे। . _ मैंने तो प्रस्तुत सूत्र पर यह सामान्य निवेदन लिखा है। विशेष में तो पाठक वर्ग को सम्यग्दर्शन पत्रिका के आद्य संस्थापक सम्पादक आदरणीय रतनलालजी सा. डोशी द्वारा लिखित "भगवान् के आदर्श श्रमणोपासक" प्रस्तावना को पढ़ना चाहिये। जो पूर्व में प्रकाशित उपासकदशांग सूत्र में आपके द्वारा लिखा गया है वह इस आवृत्ति में भी दिया गया है। . आदरणीय तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री घीसूलालजी सा. पितलिया द्वारा अनुवादित संघ द्वारा उपासकदशांग सूत्र का पूर्व में प्रकाशन हो चुका है। पर संघ की आगम बत्तीसी योजना के अनुसार उसमें कठिन शब्दार्थ एवं विशेष विवेचन नहीं होने से इसका नये सिरे से अनुवाद करना उचित लगा ताकि सभी आगमों में एकरूपता रहे। इसके लिए सर्व प्रथम आदरणीय पितलिया सा. से निवेदन किया गया पर आपश्री ने अपनी असमर्थता बतलाई। अतः इसका पुनः अनुवाद सम्यग्दर्शन के सह-सम्पादक श्री पारसमलजी सा. चण्डालिया ने संघ की आगम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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