Book Title: Uktiratnakara
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ प्रस्तावना "लोकभाषामें प्रचलित अधिक शब्द, वास्तवमें तो प्रायः संस्कृत भाषाके ही मूल शब्द हैं, परंतु पामरजन अर्थात् अपठित एवं अशिक्षित जनोंके अशुद्ध वाग्व्यापारके कारणसे, उन शब्दोंके वर्गों, अक्षरों आदिमें परिवर्तन हो हो कर, उनके मूल स्वरूपका भ्रंश हो गया अर्थात् वे शब्द अपने असली रूपसे भ्रष्ट हो गये । इसलिये इस लोकव्यवहार में प्रचलित शब्दस्वरूपवाली भाषाको पण्डित दामोदरने अपभ्रंश या अपभ्रष्ट नामसे उल्लिखित किया है; और किस तरह इन अपभ्रष्ट शब्दप्रयोगोंका, संस्कृतके व्याकरणनिबद्ध क्रिया, कारक, कर्म आदि उक्ति प्रकारोंके साथ, संबन्ध रहा है, उसका स्वरूपप्रदर्शन, इस ग्रन्थमें किया है। इसीलिये इसका दूसरा नाम 'प्रयोग प्रकाश' ऐसा भी रखा गया है ।" "ग्रन्थमें प्रतिपादित इस महत्त्वके विषय पर यहां अधिक लिखनेका अवकाश नहीं है। सद्भाग्यसे इस विषयके प्रतिपादक, इसी शैलिमें लिखे गये, अनेक छोटे बडे ग्रन्थ, हमें राजस्थान एवं गुजरातके प्राचीन ग्रन्थभण्डारों में से प्राप्त हुए हैं और उनके संग्रहात्मक ऐसे दो-तीन संग्रह-ग्रन्थ हम और प्रकाशित करना चाहते हैं। इनमेंसे, 'उक्तिरत्नाकर' आदि, ऐसी ही ४-५ कृतियोंका संग्रहस्वरूप, एक ग्रन्थ तो, राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्थापित एवं प्रकाशित तथा हमारे द्वारा संचालित एवं संपादित 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।" “इस प्रकारकी उक्तिव्यक्ति विषयक भिन्न भिन्न कृतियोंका और उनमें ग्रथित भाषा विषयक सामग्रीका विस्तृत विचार, हम किसी अन्यतम ग्रन्थमें करना चाहते हैं । हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भारतीय-आर्यकुलीन-देशभाषाओंके विकास-क्रमके अध्ययनकी दृष्टिसे यह औक्तिक-साहित्य-संग्रह बहुत उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करेगा।" - इत्यादि उपर दिये गये उद्धरणमें जिन ४-५ कृतियोंका निर्देश सूचित किया गया है उनमें से प्रस्तुत संग्रहमें तो मुख्यतया साधुसुन्दर रचित 'उक्तिरत्नाकर' ही मुद्रित है। अन्य मुख्य रचनाएं, इसके द्वितीय भागके रूपमें छप रही हैं, जिनमें कुलमण्डन सूरिका बनाया हुआ 'मुग्धावबोध-औक्तिक' आदि संगृहीत हैं। साधुसुन्दर गणीने अपनी प्रस्तुत रचनामें, प्रारंभमें संस्कृत व्याकरणके षट्कारक विषयक प्रकरणका निरूपण किया है। संस्कृत भाषाका प्रारंभिक परिचय प्राप्त करनेवालेके लिये यह जानकारी प्रथम आवश्यक होती है कि कौन सी विभक्तिका प्रयोग किस अर्थमें किया जाता है । अतः प्राथमिक विद्यार्थियोंको विभक्तिके ज्ञानके साथ ही कारक अर्थों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक रहता है। इस लिये इस प्रकारके जो औक्तिक प्रकरण रचे गये हैं उनमें प्रायः प्रथम कारक अर्थोंका निरूपण किया हुआ होता है । प्रस्तुत उक्तिरत्नाकरमें भी उसी शैली अनुसार प्रारंभमें कारक प्रकरण लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 136