Book Title: Uktiratnakara
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir
View full book text
________________
४१
उक्तिरत्नाकर विट्टालइ अस्पृश्यसंसग करोति । ग्रसइ असते। चांपइ आक्रमति ।
अभ्यसइ अभ्यस्यति । पमावइ प्रमापयति ।
विमासइ विमृशति । हाथी गुलगुलायइ हस्ती गुलगुलायते । पडीगइ प्रतिकरोति । जललियइ उल्लालयति ।
छइ अस्ति । ढोकइ ढोकयति ।
आखइ आख्याति । पधारउ पादाऽवधार्यताम् ।
आवइ एति, आयाति वा । संभालइ संभालयति ।
ऊगइ उदेति । पलाणइ पर्याणयति ।
आथमइ अस्तमेति । लालइ लालयति ।
पूजइ पूजयति । सांधइ संधयति, संधत्ते वा ।
नमस्करइ नमस्करोति । हेरइ हेरयति ।
कुसणइ कुष्णाति । धीरवइ धीरयति ।
वीनवइ विज्ञपयति । भलिसुं भलिष्ये ।
वापरइ व्याप्रियते। ऊछलइ उच्छलति ।
पावइ प्रापति (प्राप्नोति ?) ऊछालइ उच्छालयति ।
पामइ प्रपूर्वोऽमिः प्राप्ती, प्रामति । साहइ साहयति ।
वीखरइ विकिरति । संबाहइ संवाहयति ।
परिणइ परिणयति । कूकइ कूत्करोति कुर्वते वा।
वीवाहइ वीवाहयति । हकइ ढोकते।
पूरइ पूर्यते। थांभइ स्तन्नाति ।
बीहइ बिभेति । ताकइ तर्कति ।
बीहावइ भापयते । निर्धाटइ निर्धाटयति ।
उल्लावइ उल्लवति । ऊलडइ उल्लुडयति ।
उल्लींचइ उल्लञ्चति । विकुर्वइ विकुर्वति ।
सुंघइ शिंघति । पालइ पालयति ।
छांडइ छर्दयति । पायइ पाययति ।
निरखइ निरीक्षते । बोलइ ब्रवीति ।
परखइ परीक्षते । जीपइ जयति ।
ऊवेखइ उपेक्षते । जाणइ जानाति ।
उध्रकइ उद्रेकते । आरंभइ आरभते।
पडखइ प्रतीक्षते। सांभरइ स्मरति ।
समरइ स्मरति । परीछइ परेरिषेः, परीच्छति ।
बलइ ज्वलति । उ० र०६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136