Book Title: Uktiratnakara
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir
View full book text
________________
झूरइ
खिद्यते।
पण्डितप्रवर -श्रीसाधुसुन्दरगणि-कृत ग्रहइ गृह्णाति ।
छाजइ, रिजइ राजते। गरहइ गर्हति ।
खूपइ मज्जति । दोहइ दोग्धि ।
पूंजइ पुञ्जयति । दहइ दहति ।
विढवइ अर्जयति । मूझइ मुह्यति ।
जूपइ युनक्ति । वहइ वहति ।
उखुडइ उलूरइ त्रुटति । नीसरइ निस्सरति ।
घोलइ घूर्णति । ऑसरइ अपसरति ।
विरोलइ मथ्नाति । फाडइ पाटयति ।
ऊदलइ आञ्छिदइ आछिनत्ति । ठंभीजइ स्तभ्यते ।
फंदइ स्पन्दते । बजरड़ कथयति ।
मलइ मृद्गाति । दुगुंछइ जुगुप्सते। सद्दहइ श्रद्धत्ते ।
विसूरइ उंघइ निद्राति ।
हाकइ निषेधते । मिलायइ म्लायति ।
झखइ संतपति । ढांकइ छादयति ।
समाणइ समापयति । दूमइ दावयति ।
घातइ क्षिपति । धवलइ धवलयति ।
लोटई खपिति । तोलइ तुलयति ।
बडबडइ विलपति । मेलवइ मिश्रयति ।
आढवइ आरभते । भमाडइ भ्रमयति ।
जभाआइ जृम्भते । नसावइ नाशयति ।
आभिडइ संगच्छते । दाखवइ दर्शयति ।
ऑगालइ रोमन्थयति । प्रकासइ प्रकाशयति ।
देखइ पश्यति । कंपावइ कम्पयति ।
छिवइ स्पृशति । लुकइ निलीयते ।
ढंढोलइ गवेषयति । नीवडइ पृथक् स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः । चोपडइ म्रक्षयति । आछोटइ आछोटयति ।
डरइ त्रस्यति । वीसरइ विस्मरति ।
पलोटइ पर्यस्यति । महमहइ मालती मालतीगन्धः प्रसरति। चडइ आरोहति । साहरइ, संवरइ संवृणोति ।
थाका थक्कति, नीचां गतिं करोति, समारइ समारचयति ।
विटम्बयति वा ।
फीटइ भ्रंशते ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136