Book Title: Uktiratnakara
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 14
________________ उक्तिरत्नाकर गया है । बाद में प्रायः २४०० जितने देश्य शब्द और उनके संस्कृत प्रतिरूप बतलाने वाले शब्दों का विशाल शब्दसंग्रह दिया गया है । प्रस्तुत संग्रह में उक्तिरत्नाकरके बाद दो अन्य ऐसी ही पुरातन रचनाएं दी गई हैं। इनमें पहली रचनाका नाम सामान्य रूप से 'उक्तीयक' ऐसा लिखा मिला है और दूसरी रचनाका नाम 'औक्तिकपदानि ' ऐसा लिखा मिला है। इन रचनाओंके कर्ता या संग्राहकके नाम नहीं उपलब्ध हुए। जिन प्राचीन प्रतियों परसे इनका मुद्रण किया गया है वे प्रतियां विशेष प्राचीन हैं । अर्थात् उक्तिरत्नाकरके कर्ताके समय से भी पूर्व लिखी गई ज्ञात होती हैं। इस प्रकारके और भी अनेक फुटकर संग्रह हमें प्राप्त हुए हैं जिनका प्रकाशन द्वितीय भाग में करना सोचा गया है। इन रचनाओं में प्रतिपाद्य विषय तो एक ही प्रकारका होता है पर संकलन करनेकी शैली पृथक् पृथक होती है । इसमें दी गई 'उक्तीयक' नामक रचना में प्रारंभ में 'वर्तमानकालिक' धातुरूप दिये हैं । उसके बाद कृदन्तसाधित शब्द दिये हैं । तदनन्तर 'तव्य' प्रत्ययान्त शब्दरूप दिये गये हैं। बाद में सर्वनाम आदि शब्दों का संग्रह दिया गया है। इसमें 'कारक विचार' प्रकरण नहीं दिया गया । 'औक्तिकपदानि ' नामक रचनामें, प्रारंभ में 'कारकविचार' आलेखित किया गया है । साधुसुन्दर गणीने अपनी रचना में 'कारकविचार' शुद्ध संस्कृतमें लिखा है तब इस रचना में यह प्रकरण अपनी देश्य भाषामें लिखा गया है । कारकविचारके बाद, इसमें वर्तमान, भूत, भविष्य आदि 'कालविचार' दिया गया है । बाद में शब्दसंग्रह है । तदनन्तर 'क्रियावचन' दिये गये हैं। फिर 'कर्मणिवाक्य' प्रयोग हैं। इसके अनन्तर विभक्ति- अर्थ और उनके वाक्य प्रयोग दिये हैं । फिर 'समासप्रकरण' दिया गया है. और इसके बाद तद्धित शब्दोंका विचार किया गया है । अन्तमें क्रियाओंके प्रेरक रूप और सनन्त रूपोंका दिग्दर्शन कराया गया है । इस प्रकार इस रचना में व्याकरण के मुख्य मुख्य सभी विषयोंका विवेचन दिया गया है । * हमारे राष्ट्र के किसी भी प्रदेशकी मातृभाषा संस्कृत नहीं है । मातृभाषाएं तो तत्तत् प्रादेशिक भाषाएं हैं, जिनका स्वरूप वर्तमान में संस्कृतसे बहुत कुछ भिन्न मालूम होता है । मनुष्य के ज्ञानके विकासका क्रम सर्व प्रथम मातृभाषा द्वारा शुरू होता है । मातृभाषा द्वारा ही प्राप्त शब्दज्ञानके आधार पर, मनुष्य अन्यान्य भाषाओंका ज्ञान प्राप्त करता रहता है, और उनके द्वारा वह अपनी ज्ञानसमृद्धि बढाता जाता है । हमारे देशकी सर्व प्रकारकी प्राचीन ज्ञानसमृद्धि, संस्कृत वाङ्मयरूप भंडार में निहित है । हजारों वर्षों से हमारे पूर्वज अपने अनुभव और बुद्धिबलसे प्राप्त समग्र ज्ञानसमृद्धिको, इसी संस्कृत वाङ्मयके भण्डारमें अर्पण करते रहे हैं और इस लिये हमारा यह वाङ्मय भण्डार, संसारके अन्यान्य भाषाकीय प्राचीन ज्ञानभण्डारोंकी अपेक्षा, सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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