Book Title: Uktiratnakara
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 11
________________ प्रस्तावना ६ साथ वाद-विवाद करने में खूब ख्याति प्राप्त की थी; इस लिये बादशाहने इनको 'वादिसिंह'का इल्का प्रदान किया था । ये हजारों शास्त्रोंका सार जानने वाले असाधारण विद्वान् थे'इत्यादि । ग्रन्थकार साधुसुन्दरका बनाया हुआ 'धातुरत्नाकर' नामका एक अन्य बहुत बडा संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध होता है जिसमें संस्कृतके प्रायः सब धातुओं का संग्रह किया गया है और उनके रूपाख्यानोंका विशद आलेखन किया गया है। वह धातुरत्नाकर वि० सं० १६८० में बन कर पूर्ण हुआ था। इनकी बनाई हुई एक संस्कृत स्तुति भी प्राप्त होती है जिसमें जैसलमेर के किलेमें प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ जैन तीर्थंकरकी स्तवना की गई है । यह स्तुति वि० सं० १६८३ में बनी है । इससे साधुसुन्दर गणिका जीवनसमय विक्रमकी १७ वीं शताब्दीकी अन्तिम पचीसी निश्चित होता है । इन्हीं साधुसुन्दरके एक शिष्य उदद्यकीर्ति नामक यति थे जिनने विमलकीर्तिकी बनाई हुई 'पदव्यवस्था' नामक मन्थकृति पर वि. सं. १६८१ में, व्याख्या की हैं । इससे यह भी ज्ञात होता है कि ग्रन्थकर्ताकी गुरु-परंपरा एवं शिष्य परंपरा दोनों ही विद्याकी उपासना में दत्तचित्त थीं । * ग्रन्थगत विषयका अवलोकन करनेसे विद्वानोंको ज्ञात होगा कि ग्रन्थकारने, अपनी देश-भाषा में प्रचलित, देश्य स्वरूपवाले शब्दों के संस्कृत प्रतिरूपोंका ज्ञान कराने की दृष्टिसे इसका संकलन किया है। भारत महाराष्ट्रकी सर्व काल एवं सर्व देश व्यापिनी प्रधान साहित्यिक भाषा संस्कृत रही है । भारतीय वाङ्मयके इतिहासके आदि युगसे ले कर वर्तमान समय तक, संस्कृतकी प्रतिष्ठा और प्रभुता अक्षुण्ण रही है। बीच-बीच में कालक्रमानुसार, संस्कृत के सन्तत प्रवाह के साथ साथ, उससे उत्पन्न एवं उससे सहकार प्राप्त मागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि अनेक प्राकृत भाषाओं का प्रादुर्भाव हो कर धीरे धीरे Sant विकास होता गया। फिर बाद में उनका स्वरूपान्तर हो कर उनके स्थानमें तत्तत् देशीय अपभ्रंश भाषाओं का जिनको मध्यकालीन वैयाकरणोंने 'देश्यभाषा' के सर्व - सामान्य नामसे उल्लिखित किया है- आविर्भाव हुआ। भारतके समग्र उत्तरापथकी वर्तमान प्रादेशिक भाषाएं - हिन्दी, बंगाली, मराठी, पंजाबी, सिंधी, राजस्थानी ( - गुजराती, मारवाडी, मालवी) आदि लोकभाषाएं उसी अपभ्रंशके नूतनस्वरूपप्राप्त - विकसित भाषा विभाग हैं। इन भाषाओंमें, सेंकडों ही संस्कृत मूल शब्द, भिन्न भिन्न देश और जाति के लोगों के पारस्परिक संपर्कके कारण, उच्चारण-भेद एवं व्यवहार-भेद द्वारा, अन्याकार स्वरूपको प्राप्त होते गये । खास करके संस्कृत के जिन मूल शब्दों में संयुक्ताक्षर अधिक होते हैं उन शब्दोंके प्राकृत - अपभ्रष्ट रूप विशेष रूप में परिवर्तित होते रहे । स्वयं 'संस्कृत' शब्दका रूपान्तर 'संखय' 'सक्कय' 'संगड' आदि और प्राकृत शब्दका रूपान्तर 'पागय' 'पाइय' 'पायड' आदिके रूपमें परिवर्तित हो गया । ' उपाध्याय' शब्दका अपभ्रष्ट रूप, 'ओझा' 'झा' 'वझे' आदि बन गया | संस्कृत शब्दों के ये प्राकृत - अपभ्रष्ट रूप किस प्रक्रिया द्वारा बनते गये, इसका विचार प्राकृत - अपभ्रंशके व्याकरण ग्रन्थोंमें बहुत कुछ किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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