Book Title: Tulsi Prajna 2004 01 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 7
________________ पाषाण और धातुओं में जीवन मानती है और साथ ही यह भी मानती है कि इनमें स्थूल क्रिया नहीं है। स्थूल क्रिया के अभाव के कारण ये वनस्पति पशु अथवा मनुष्य के समान बढ़ते नहीं। यह चेतना का सबसे कम विकसित रूप है। इसलिये पाषाण अथवा धातु का पूरा का पूरा शरीर पृथ्वी से सटा रहता है। वैदिक देवों की परिभाषा में सभी शरीर अग्नि से बनते हैं जिसे वैश्वानर अग्नि भी कहा जाता है। पाषाण और धातुओं का शरीर तो इस अग्नि से बन जाता है किन्तु वायु तत्व के द्वारा होने वाली क्रिया और आदित्य तत्व के कारण होने वाला ज्ञान इसमें इतना कम होता है कि हम उसे पकड़ नहीं पाते है और सामान्यतया इन्हें जड़ ही समझ लेते हैं किन्तु वेद इनमें चेतना मानते हैं और इसलिये वैदिक मंत्रों में पाषाणों को सम्बोधित करके कहा गया है कि हे पाषाणों, सुनों- शृण्वन्तु ग्रावाणः । इससे स्पष्ट होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय न होने पर भी पाषाण सुनते हैं, अग्नि और वायु जिन्हें जैन स्थावरकायिक जीव मानता है, उनका उल्लेख तो वैदिक परम्परा में अर्थ शक्ति प्रधान है और सबसे कम विकसित जीवों के रूप में है किन्तु कोई ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि वैदिक परम्परा जल, अग्नि और वायु को भी जैनों के समान स्थावर कोटि की श्रेणी में रखती है या नहीं। उल्लेखनीय है कि उत्तराध्ययन में अग्नि और वायु को भी त्रस ही माना गया है, स्थावर नहीं। वैदिक परम्परा में अग्नि और वायु देव कोटि में आते हैं, अत: जीवों के वर्गीकरण करते समय उनका उल्लेख जीवों में न करके जीवों में रहने वाली देव शक्ति के रूप में किया गया। अग्नि की शक्ति जीवों को मूर्त रूप प्रदान करती है, वायु की शक्ति उन्हें क्रियाशील बनाती है। इन्हें क्रमशः वाक् शक्ति और प्राण-शक्ति भी कहा गया है। दोनों परवर्ती दर्शन में क्रमशः तमोगुण और रजोगुण के नाम से जानी जाती हैं। तीसरा गुण सत्वगुण है जो आदित्य नाम के देव से आता है और जिसके कारण जीव में ज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार अग्नि और वायु जैन परम्परा में जीव है किन्तु वैदिक परम्पराओं में देव है। यद्यपि यह भेद है कि जैन परम्परा में सूर्य वैदिक परम्परा के समान सत्वगुण का स्रोत नहीं है। इतनी बात दोनों परम्पराओं में समान है कि धातु और पाषाण को दोनों ही परम्परा स्थावर जीव मानती है। जिनमें ज्ञान तो है किन्तु अत्यन्त अल्पमात्रा में । वनस्पति- वैदिक परम्परा में वनस्पति को एकेन्द्रिय होने पर भी अन्य एकेन्द्रियों की अपेक्षा अधिक विकसित माना गया है। आचारांग में वनस्पति में जीव होने के लिए जैसे प्रमाण दिये गये हैं वैसे प्रमाण पृथ्वीकाय आदि के लिए नहीं दिये गये हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वनस्पति का जीव पृथ्वीकाय आदि की अपेक्षा अधिक विकसित है। वैदिक परम्परा में भी वनस्पति में चेतना का अधिक विकसित रूप मानते हुए उन्हें पाषाण और धातुओं की अपेक्षा अलग कोटि में रखा गया है। महाभारत में कहा गया है कि वनस्पति में स्पर्श करने की, सुनने की, देखने की और सुख-दुःख अनुभव करने की सामर्थ्य है। वैदिक परम्परा में वनस्पति के पाषाण धातु की अपेक्षा अधिक विकसित होने के कारण यह दिया गया है कि पाषाण और धातुओं में केवल तमोगुण ही व्यक्त रहता है जबकि वनस्पति में रजोगुण भी अभिव्यक्त हो जाता है। जिसके कारण इतने क्रियाशील हो जाते हैं कि इनमें भी पशुओं तथा मनुष्यों के समान वृद्धि होती है तथा आहार न मिलने पर ये म्लान होकर मरते हुए 2 - तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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