Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ 6. लोक कभी भी अलोक नहीं होगा, अलोक लोक नहीं होगा। 7. लोक कभी भी अलोक में प्रविष्ट नहीं होगा और अलोक कभी लोक में प्रविष्ट नहीं होगा। 8. जहां लोक है वहां जीव है और जहां जीव है वहां लोक है। 9. जहां जीव और पुगलों का गतिपर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां ____ जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है। 10. समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते। स्थानांग संख्या सूचक ग्रंथ है तथा उसमें एक से दस तक की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन हुआ है । जैन आगमों में जीव, कर्म, पुनर्जन्म आदि विषयों से सम्बंधित विपुल मात्रा में सार्वभौम नियमों का उल्लेख है। सन्दर्भ : 1. ठाणं 2/1, जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं । 2. (क) वही, 2/1, जीवच्चेव अजीवच्चेव। (ख) The New Encyclopaedia Britannica Vol. 6, P. 473. Jain metaphysics is a dualistic system dividing the Universe into two ultimate and indepen dent categories soul or living substance (Jiva), which permeates natural forces such as wind and fire as well as plants, animals and human beings, and nonsoul or inanimate substance (ajiva) which include space, time and matter. 3. ठाणं, 2/1 4. (क) वही, 2/147, के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। (ख) वही सूयगडो, 2/2/39 ..........दुहओ लोगं जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव। 5. ठाणं, 2/418-19, के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव, के सासयालोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव। 6. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/30, तद्भावाव्ययं नित्यम्। 7. 7. ठाणं, 2/417 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई), 13/53, पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पुवच्चइ। 9. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई), 13/61 10. वहीं, 1 11. (क) छान्दोगयोपनिषद्, (गोरखपुर, वि.सं. 2023) 14/1, सर्वं खल्विदं ब्रह्म। (ख) काठकोपनिषद्, (पुणे, 1977) 2/1/11, नेह नानास्ति किंचन । तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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