Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 77
________________ अभिज्ञानशाकुन्तमलम् का प्रारम्भ शिव स्तुति से ही होता है। कुमारसंभव में हिमालय की महिमा, ब्रह्मा की स्तुति अत्यन्त कमनीय है। यह आर्त स्तुति है।' महाकाव्य के दसवें सर्ग में विष्णु भगवान् की स्तुति की गई है। किरातार्जुनीयं अलंकृत शैली का उत्कृष्ट महाकाव्य है। महाभारतीय आख्यान पर विरचित यह ग्रंथ महाकवि भारवि की अर्थगौरवपूर्ण अमर कृति है। इस महाकाव्य के अंत में अर्जुन ने भगवान् शंकर की स्तुति की है। 2 उपमा, अर्थगौरव एवं पदलालित्य के तीनों गुणों से विभूषित महाकवि माघ संस्कृत साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। सुरभारती के वरदवत्स हैं। 'शिशुपालवध' महाकाव्य के चतुर्दशसर्ग में पितामह भीष्म ने सर्वनियन्ता अर्जुन सखा भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उदात्त स्तुति समर्पित की है। नैषधीयं चरितम् महाकाव्य महाकवि हर्ष की अनुपम रचना है। "नैषधं विद्वदौषधम्" सूक्ति जो सम्पूर्ण विदग्ध --- संसार में प्रथित है। इस महाकाव्य में मत्स्यावतार, कच्छपावतार, वारादावतार, नृसिंहावतार, वामनावतार एवं अन्य भगवदवतारों की स्तुतियां संग्रथित हैं। रत्नाकर कवि ने 'हरिविजयम्' नामक महाकाव्य में देवताओं तथा चण्डी की स्तुति करायी है। किन्तु इन्हें स्तोत्र साहित्य का अंश ही कहा जा सकता है। इनके अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी स्तोत्र साहित्य लिखे गये, जैसे--- पुष्पदन्त विरचित 'शिवमहिम्न स्तोत्र', मयूर कवि द्वारा 'सूर्यशतक', महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित 'चण्डीशतक', शंकराचार्य द्वारा विरचित 'आनन्द लहरी' (सौन्दर्य लहरी), मोहमुदगर', 'अपराध-भजन', 'कनकधारा-स्तोत्र', 'आत्मबोध', 'यतिपंचक', आदि प्रसिद्ध हैं। आचार्य कुलशेखर की ‘कुन्दमालास्तोत्र', यमुनाचार्य का 'अलबंदारस्तोत्र', लीलाशुक्र का 'कृषकर्णामृत' स्तोत्र आदि प्रसिद्ध हैं। जैन संस्कृत स्तोत्रों में मुख्य तत्त्व 1. भक्त अपने सांसारिक सुख-दुःखात्मक अनुभूति को प्रभु के चरणों में उड़ेलकर अपना समस्त कार्यभार उसी पर छोड़ देता है। यह आत्मानुभूति जब स्वाभाविक स्वर लहरी में निजी हर्ष-विषाद की अभिव्यंजना के लिए प्रस्तुत होती है और आराध्य से सहायता की अपेक्षा करती है तब स्तुति काव्य का प्रारम्भ होता है। 2. उपास्य के दिव्यशील, सौन्दर्य और अलौकिक गुणों की महत्ता। 3. एकाग्रता स्तुति का मूल है। जब तक चित्तवृत्तियां स्थिर नहीं हो जाती तब तक स्तुति का प्रणयन नहीं हो सकता। बाह्य विषयों से निवर्तित होकर चित्तवृत्तियां जब उपास्य के चरणों में एकत्रावस्थित हो जाती हैं तभी भक्त के हार्द धरातल से उसके उपास्य से सम्बंधित नाम-गुण-रूपात्मक स्वर लहरियां स्वतः ही निःसृत होने लगती हैं। 4. कर्मावरण के कारण पैदा होने वाली विकृति का कथन । 5. आध्यात्मिकता या दार्शनिक विचारों की प्रधानता। 74 - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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