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6. शरणागति की स्तुतियों में प्रधानता होती है। सांसारिक भय से पीड़ित होकर जीव
सत्यात्मक प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है। 7. असंभव अलौकिक और चमत्कारपूर्ण कार्यों को आराध्य द्वारा सम्पन्न कराने की
आकांक्षा। स्तोत्रों में तत्त्व-स्तुति में उपास्य के गुणों का संकीर्तन निहित रहता है। सर्वात्मना प्रभु चरणों में समर्पित एवं मनसा, वाचा तथा कर्मणा अपने प्रियतम में अधिष्ठित भक्त हृदयस्थ भावों को उस उपास्य किंवा प्रियतम के चरणों में शब्दों के माध्यम से विनिवेदित करता है, उसे ही स्तुति कहते हैं । स्तुति की भाषा सरल हृदय की भाषा होती है। उसमें बाहरी वृत्तियों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। स्तोत्र पाठ करने से चित्त में निर्मलता उत्पन्न होती है, जिससे पुण्य का बंध होता है। शुद्धात्माओं की उपासना या भक्ति का आलम्बन पाकर मानव का चंचल चित्त क्षणभर के लिए स्थिर हो जाता है, आलम्बन के गुणों का स्मरण कर अपने अन्दर उन्हीं गुणों को विकसित करने की प्रेरणा पाता है तथा उनके गुणों से अनुप्राणित होकर मिथ्या परिणति को दूर करने के पुरुषार्थ में रत हो जाता है।
जैनधर्म में भक्ति का रूप आराध्य को प्रसन्न कर कुछ पा लेने का नहीं, इसलिए यहां भक्ति का रूप दास्य, सख्य एवं माधुर्यभाव से सर्वथा भिन्न है। उत्तराध्ययन में स्तोत्र के फल के विषय में एक बड़ा ही रोचक संवाद प्राप्त होता है - "स्तुति करने से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधिलाभ प्राप्त करता है। बोधिलाभ से उच्च गतियों में जाता है। उसके रागादि भाव शांत होते हैं।" आचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भूचरितं में लिखा है
"तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम्।
पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किंचन॥" अर्थात् तुम पुण्यकीर्ति और मुनियों के इन्द्र से यदि तुम्हारे नाम का उच्चारण कर लिया जाए तो वह हमें शुद्ध बना देता है, यही तुम्हारे स्तवन का प्रयोजन है। आचार्य समन्तभद्र स्तुति को प्रशस्ति-उत्पादिका बतलाते हैं । जैनधर्म के अनुसार आराध्य तो वीतरागी होता है, वह न तो कुछ लेता है और न देता है परन्तु भक्त को उसके सान्निध्य से एक ऐसी प्रेरक शक्ति मिलती है जिससे वह सब कुछ पा लेता है।
जैनदर्शन में शुद्ध आत्मा का नाम ही परमात्मा है। प्रत्येक जीवात्मा कर्मबंधनों के विलग हो जाने पर परमात्मा बन जाता है। अतः अपनी उन्नति और अवनति का दायित्व स्वयं अपना है। अपने कार्यों से ही यह जीव बंधता है और अपने कार्यों से ही बंधनमुक्त होता है। उपासना या भक्ति अकिंचन या नैराश्य की भावना नहीं है। साधक संयम, त्याग, तप और ध्यान द्वारा कर्मबंधन को नष्ट कर जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जैन भक्तिकाल की पृष्ठभूमि में बताया है - वीतरागी भगवान् भले ही कुछ न देता हो, परन्तु उसके सान्निध्य में वह प्रेरक शक्ति है, जिससे भक्त स्वयं सब कुछ पा लेता है। जैनदर्शन में निष्काम भक्ति को
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 [
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