Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ महत्त्व प्राप्त है। जहां सांसारिक स्वार्थ रहता है, वहां कर्मबंध जरूर होता है। जैन स्तोत्रों में भक्ति का रूप वर्णित है, वह दीनता से दूर है। संस्कृत जैन स्तोत्र साहित्य जैन साहित्य में प्राकृत स्तोत्रों के लिए 'थुई' और 'थुति' (उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 29, सूत्र 14)- ये दो शब्द मिलते हैं। संस्कृत स्तोत्रों के लिए स्तुति, स्तव, स्तवन, स्तोत्र आदि शब्द व्यवहत है। अदादिगणीय “ष्टञ् स्तुतौ'' धातु से स्त्रियां क्तिन् से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर स्तुति शब्द निष्पन्न होता है । स्तुतिः शब्द स्तु क्तिन्", स्तवः शब्द स्तु अप, स्तोत्रम् शब्द स्तुष्टन् से बना है, जिनका अर्थ स्तोत्र-प्रशंसा, स्तुति, स्तुतिगान, स्तुतिप्रशंसा, गुण कीर्तन, श्लाघा, स्तोत्र, प्रशंसा करना, सूक्त और स्तव-प्रशंसा करना, विख्यात करना, स्तुति करना, प्रशंसा, स्तुति और स्तोत्र है । स्तव्य' का अर्थ है जो स्तवन स्तुति किये जाने योग्य है, जिसका स्तवन किया जाये। संस्कृत का स्तोत्र साहित्य अत्यंत विपुल और समृद्ध है। ऋग्वेद से चली आ रही स्तोत्र परम्परा अविच्छिन्न रूप से अब तक चली आ रही है। सत्कवियों ने अपनी वाणी को अपने आराध्य के गुणानुवाद से सहज रूप में पवित्र बनाया है। कोश- अमरकोश के अनुसार स्तुति का अर्थ स्तव, स्तोत्र और नुति है । हलायुध कोश में प्रयुक्त अर्थवाद, प्रशंसा, स्तोत्र, ईडानुति, स्तव, शूाघा, विकथन, वर्णना आदि शब्द स्तुत्यर्थक हैं।' बाणभट्ट के शब्द रत्नाकर में प्रशंसा, ईडा, नुति आदि शब्द स्तुति के पर्याय के रूप में उपन्यस्त है । वैजयंतीकोश के अनुसार साम, शस्त्र और स्तोत्र स्तुति शब्द के अर्थ हैं। प्रारम्भ में स्तुति और स्तव में अन्तर रहा है, यथा - एकः शोकः द्विीको त्रिशोका: वा स्तुतिर्भवति । परतश्चतुःश्रोकादिक: स्तवः । अन्येषामाचार्याणां मतेन एक लोकादि : सप्तथोकपर्यन्ताः स्तुतिः । ततः परमष्ट लोकादिकाः स्तवाः ।24 अर्थात् एक श्रोक से तीन श्रीक पर्यन्त स्तुति और उसके अनन्तर चार श्रोक आदि स्तवन हैं। मतान्तर से एक शोक से सात शोक पर्यन्त स्तुति और आठ श्रीक अथवा इससे अधिक शोक स्तव कहलाते हैं। श्री शांतिसूरि ने स्तव और स्तोत्र में भेद बतलाते हुए लिखा है – 'स्तव गम्भीर अर्थ वाला और संस्कृत भाषा में निबद्ध किया जाता है तथा स्तोत्र की रचना विविध छन्दों के द्वारा प्राकृत भाषा में होती है। परन्तु बाद में ये सभी भेद समाप्त हो गये और स्तुति और स्तवन, स्तोत्र समानार्थी हो गये।' वस्तुतः इस चराचर क्षणभंगुर जगत् में स्तव्य तो एक ही है, जिसका स्तुतिगान कर कवि की वाणी परम विश्राम, परमानन्द को प्राप्त करती है। वह है समग्र ऐश्वर्य, वीर्य, श्री, यश और विराग स्वरूप भगवत् तत्त्व, परमात्म तत्त्व, जिसे शैव-शिव, वेदान्ती-ब्रह्म, वैष्णवविष्णु, शाक्त-शक्ति, बौद्ध-बुद्ध, मीमांसक-कर्म, नैयायिक-कर्ता और जैनदर्शन नैसर्गिक शुद्ध रूप स्वरूप, अनन्तगुण, चतुष्टय, स्वरूप जीव मानते हैं। जिन, अर्हत् और महावीर मानते हैं। तुलसी प्रजा अंक 116 117 76 -------------- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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