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विवेचना करते हैं । इसमें 115 पद्य हैं । 'देवागम' पद द्वारा इस स्तोत्र का प्रारम्भ होने से यह 'देवागम स्तोत्र' कहलाता है ।
आचार्य सिद्धसेन (ईस्वी सन् चौथी शती ) – कवि सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकाएं हैं । जैसे महावीर द्वात्रिंशिका । द्वात्रिंशिकाओं की भाषा अत्यंत प्रौढ़ और परिमार्जित हैं । स्तवन प्रसंग में दीप्तियुक्त अक्षरों या शब्दों का प्रयोग कर आह्लादकता का समुचित समावेश किया गया है। द्वात्रिंशिकाओं में उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, उपजाति, वंशस्थ, शार्दूविक्रीड़ित, शिखरिणी आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त इनका प्रसिद्ध स्तोत्रकाव्य "कालु कल्याणमंदिर स्तोत्र" भी है।
दैवनन्दि पूज्यपाद (वि.सं. छठी शती) - सिद्धिप्रियस्तोत्र, शान्त्यष्टक, सरस्वती स्तोत्र देवनन्दि पूज्यपाद ने श्रुतभक्ति, चरित्रभक्ति, सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, योगभक्ति, पंचगुरुभक्ति, आचार्यभक्ति, शांतिभक्ति, समाधिभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, चैत्यभक्ति तथा नन्दीश्वरभक्ति की रचना की है। प्रस्तुत बारह भक्तियां बारह स्तोत्र हैं । प्रस्तुत काव्यों में अध्यात्म, आचार, स्तुति, प्रार्थना और नीति का प्रतिपादन किया है ।
पात्रकेसरी (ईस्वी सन् छठी शती ) जिनेन्द्र गुण संस्तुति (पात्रकेसरी) नामक स्तोत्र की रचना पात्रकेसरी नामक कवि की है। अर्हन्त भगवान् की संयोगिकेवली अवस्था का अत्यंत मनोरम चित्रण किया है। वीतरागी का ज्ञान एवं संयम आदि की महत्ता का विवेचन अनेक प्रकार से संयोजित किया गया है। प्रसंगवश अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों की भी समीक्षा की है। इस स्तोत्र में 50 पद्य हैं। प्रस्तुत स्तोत्र की भाषा शैली प्रौढ़ है । चारपांच पदों तक के समस्यंत पद प्राप्य हैं । इसमें आत्मनेपदी क्रियाओं का व्यवहार किया है । संगच्छते, विरुध्यते, अश्नुते, संविधास्ये, उपपद्यते, विद्यते, युज्यते, गम्यते, अनुषज्यते, छिद्यते, उह्यते आदि क्रियाएं प्रयुक्त हैं।
वज्रनन्दी (ईस्वी सन् छठी शती ) – वज्रनन्दीकृत एकमात्र 'नवस्तोत्र' काव्य उपलब्ध है।
मानतुंगाचार्य ( ईस्वी सन् सातवीं शती) – मानतुंगाचार्य ने 'भक्तामर स्तोत्र' की रचना की। आचार्य रूद्रदेव त्रिपाठी के अनुसार मानतुंगाचार्य ने आठवीं शती में भक्तामर स्तोत्र की रचना की । इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत है । यह कृति इतनी लोकप्रिय रही कि इस पर 20 टीकाएं तथा 22 से अधिक पादपूर्तिमूलक काव्यों की सृष्टि हुई। इसके प्रत्येक पद्य के आद्य या अंतिम चरण को लेकर समस्यापूर्ति - आत्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की रचना/ महत्ता के संदर्भ में विभिन्न उल्लेख मिलते हैं । प्रस्तुत स्तोत्र में 48 पद्य हैं। प्रत्येक पद्य में काव्यत्व रहने के कारण 48 काव्य कहे जाते हैं। इसमें भगवान् आदिनाथ की स्तुति वर्णित है। लेखक की रचनाओं में भक्ति के साथ ही मंत्र, तंत्र, यंत्र, आभाणक तथा अन्यान्य शास्त्रीय विषयों का मंथन भी हुआ और इस प्रकार स्तोत्र साहित्य में एक नये प्रयोग का सूत्रपात हो गया। जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के क्षेत्र में (विकास) लोकप्रिय स्तोत्रकार मानतुंगाचार्य का अवदान अत्यंत स्पृहणीय है ।
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] तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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