Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ नहीं आ सका । बम्बई के संग्रहालय (अजायबघर ) में धारा से प्राप्त एक अपभ्रंश शिलालेख विद्यमान है। यह शिलालेख 13वीं शताब्दी के देवनागरी अक्षरों में लिखा हुआ है। इसमें राधे राघव के वंशज राजकुमार के सौन्दर्य का वर्णन है। इसी प्रकार अपभ्रंश के एक शिलालेख की और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी हिन्दी साहित्य की भूमिका में निर्देश किया है।' अपभ्रंश साहित्य की सुरक्षा का श्रेय वस्तुतः जैन भंडारों को है। इन्हीं भण्डारों में से प्राप्त अपभ्रंश-साहित्य का अधिकांश भाग प्रकाश में आ सका है और भविष्य में भी अनेक बहुमूल्य ग्रंथों के प्रकाश में आने की संभावना है। अपभ्रंश साहित्य की पर्याप्त सामग्री इन भंडारों में छिपी पड़ी है। किसी ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति करवाकर, किसी भंडार में श्रावकों के लाभ के लिए रखवा देना जैनियों में परोपकार और धर्म का कार्य समझा जाता है। यही कारण है कि अनेक भंडारों में इस प्रकार के हस्तलिखित ग्रंथ मिलते हैं। जिस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ्मय में अनेक काव्य लिखे। अनेक पुराण ग्रंथों का प्रणयन किया। पार्श्वाभ्युदय द्विसंधान काव्य, शांतिनाथ चरित्रादि कलात्मक काव्य साहित्य का सृजन किया । चन्द्रदूत, सिद्धदूतादि अनेक दूतकाव्य और उपमिति भवप्रपंच कथा आदि रूपक काव्यों का निर्माण किया। इसी प्रकार इन्होंने अपभ्रंश में भी इस प्रकार के ग्रंथों का प्रणयन कर अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया । जैनियों के अपभ्रंश को अपनाने का कारण यह था कि जैनाचार्यों ने अधिकांश ग्रंथ प्रायः श्रावकों के अनुरोध से ही लिखे। ये श्रावक तत्कालीन बोलचाल की भाषा से अधिक परिचित होते थे, अतः जैनाचार्यों द्वारा और भट्टारकों द्वारा श्रावक गण के अनुरोध पर जो साहित्य लिखा गया, वह तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश में ही लिखा गया। इन कवियों ने ग्रंथ के आरंभ में अपने आश्रयदाता श्रावकों का भी स्पष्ट परिचय दिया है । कवि के कुल एवं जाति के परिचय के साथ-साथ इन श्रावकों का भी विशद वर्णन ग्रंथारंभ की प्रशस्तियों में मिलता है। जैन, बौद्ध और इतर हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों ने भी अपभ्रंश में रचना की। संदेश रासक का कर्त्ता (12वीं - 13वीं शताब्दी) । अब्दुर्रहमान इसका प्रमाण है। मुसलमान होते हुए भी इनके ग्रंथ में मंगलाचरण की कुछ पंक्तियों को छोड़कर अन्यत्र कहीं धर्म का कोई चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होता । संस्कृत में यद्यपि जैनाचार्यों ने अनेक स्तोत्र, सुभाषित, गद्यकाव्य, आख्यायिका, चम्पू, नाटकादि का भी निर्माण किया किन्तु अपभ्रंश में हमें कोई भी गद्य-ग्रंथ और नाटक नहीं उपलब्ध होता । जैन कवियों ने किसी राजा, राजमंत्री या गृहस्थ की प्रेरणा से काव्य रचना की है, अतः इन कृतियों में उन्हीं की कल्याण कामना से किसी व्रत का माहात्म्य प्रतिपादन या किसी महापुरुष के चरित्र का व्याख्यान किया गया है। राजाश्रम में रहते हुए भी इन्हें धन की इच्छा न थी, क्योंकि ये लोग अधिकतर निष्काम पुरुष थे और न इन कवियों ने अपने आश्रयदाता के मिथ्या यश का वर्णन करने के लिए या किसी प्रकार की चाटुकारी के लिए कुछ लिखा । संस्कृत साहित्य में यद्यपि अनेक काव्यों का प्रणयन रामायण, महाभारत, पुराण आदि के तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122