Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ आचार्यश्री ने मनोऽनुशासन की रचना में दर्शनशास्त्र में बहुप्रचलित सूत्र शैली का आश्रय ग्रहण किया है। सूत्र शैली की विशेषता है -- गूढ़ से गूढ़ भावों को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान करना । सूत्रकार विषय की संक्षिप्तता का इतना ध्यान रखते हैं कि किसी बात को कहने में वे एक शब्द भी कम प्रयोग कर सके तो यह उनके लिए उतना ही सुखकारक होता है, जितना सुखकारक पुत्रोत्सव होता है। आचार्य के सूत्र कण्ठस्थ करने के लिये उपयोगी होते हैं, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या कर वे अपने विषय को कितना भी विस्तार दे सकते हैं। आचार्यश्री तुलसी ने साधक एवं सुधी विद्वानों के सहज स्मरण रखने के लिए 181 सूत्रों में 'मनोऽनुशासन' का संस्कृत में प्रणयन किया, वहीं उनके पट्टधर शिष्य मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) ने इसकी विशद हिन्दी व्याख्या कर सर्वबोधगम्य बना दिया। 'मनोऽनुशासन' के प्रणयन में आचार्य तुलसी महर्षि पतञ्जलि से प्रभावित हैं जिसे निम्न विवेचन से समझा जा सकता हैपतञ्जलि' आचार्य तुलसी अथ योगानुशासनम्। अथ मनोऽनुशासनम्। योगाश्चित्तवृत्तिनिरोधः। इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहित्रैकालिकं संज्ञानं मनः । मनोऽनुशासन का परिचय यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण में मन, इन्द्रिय और आत्मनिरूपण के साथ योग के लक्षण, शोधन और निरोध की प्रक्रिया और उपायों का वर्णन है। द्वितीय प्रकरण में मन के प्रकार और निरोध के उपाय । तृतीय प्रकरण में ध्यान का लक्षण और उसके सहायक तत्त्व, स्थान (आसन), प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) की परिभाषा, स्वाध्याय, भावना, व्युत्सर्ग की प्रक्रिया। चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यान, धारणा, समाधि, लेश्या आदि का विवेचन है। पंचम प्रकरण में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन के साथ होने वाली सिद्धियाँ वर्णित हैं । षष्ठम प्रकरण में महाव्रतों (यमों) के साथ संकल्प का निरूपण है और श्रमण धर्म के प्रकारों के रूप में नियम का वर्णन है । सप्तम प्रकरण में भावना एवं फल निष्पत्ति का विवेचन है। 'मनोऽनुशासनम्' को आचार्य तुलसी कृत जैनयोग का सूत्र ग्रंथ कहा जा सकता है। इसके विषय में तेरापंथ के दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने कहा है — "इसमें योग शास्त्र की सर्वसाधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मताएँ नहीं हैं किन्तु जो हैं, अनुभवयोग्य और बहुजनसाध्य हैं। इस मानसिक शिथिलता के युग में मन को प्रबल बनाने की साधना-सामग्री प्रस्तुत कर आचार्यश्री ने मानव-जाति को बहुत ही उपकृत किया है।''। यह आकार में लघु और प्रकार में गुरु है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 20020 4 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122