Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 68
________________ वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। मुक्ति के संदर्भ में आचार्य हरिभद्र अन्य आचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में हैं – ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं किनासाम्बरत्वे ना सिताम्बरत्वे, ना तर्कवादे न च तत्त्ववादे । - ना पक्षासेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव ॥ अर्थात् मुक्ति न श्वेताम्बर, न दिगम्बर, न तार्किक वाद-विवाद और न ही तत्त्वचर्चा से हो सकती है। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असंभव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों से मुक्त होने में है, मुक्ति का आधार कोई धर्म, सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा आदि नहीं है बल्कि जो समभाव की साधना, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वही मुक्त होगा। वे कहते हैं सेयंबरो य आसंबरो य, बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥ योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि सदाशिव: परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथेती च । शब्देस्तद् उच्यतेअन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः ॥ अर्थात् सदाशिव, परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। जो उस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है, किंतु वे श्रद्धा को तर्क विरोधी नहीं मानते हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि बुद्धि और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए - आग्रही बत। निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ॥' अर्थात् आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता है, जिसे वह सिद्ध अथवा खंडित करना चाहता है। जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है। सत्य के गवेषक एवं साधना के पथिकों को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक थे । अनेकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 65 www.jainelibrary.org

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