________________
के लिए है वैसे ही अपवाद भी संयम की रक्षा के लिए है। साधना के महापथ पर गतिशील रहने के लिए जीवन रथ के दोनों चक्र उत्सर्ग और अपवाद सशक्त होने आवश्यक हैं।
दोनों ही चक्र आत्म-विकास में होने वाली क्षति से साधक को बचाते हैं अन्यथा पतन के मार्ग के लिए खुला अवकाश है। साधना के पथ पर बढ़ते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं और आते हैं। उन अवरोधों को पार करने के लिए मार्ग की अपेक्षा रहती है। अपवाद उसी
अपेक्षित मार्ग का नाम है। उत्सर्ग मार्ग चारित्रिक जीवन की आचार-संहिता है तो अपवाद संभावित समस्या का एक समाधान है। शास्त्रकारों ने नियमों का कोई खोल तैयार नहीं किया है, जो ऊपर से धारण किया जाये अथवा पदार्थ की सुरक्षा करे। उन्होंने तो नियमों को आचरणगत बनाने की प्रक्रिया सुझाई है, जिसमें विफलताएं भी अवकाश-प्राप्त हो सकती हैं। उन विफलताओं से पार पाना ही अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा -
उत् उपसर्ग का अर्थ उद्यत और सर्ग का अर्थ है विहार अर्थात् जो उद्यत विहार चर्या है उसका नाम है उत्सर्ग। उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है। अपवाद दुर्भिक्ष आदि विकट परिस्थितियों में उत्सर्ग मार्ग से च्युत साधक को ज्ञानादि अवलम्बन पूर्वक धारण करता है अर्थात् उत्सर्ग में रहते हुए साधक ज्ञानादि गुणों का संरक्षण नहीं कर पाता है तो अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकता है।'
आचार्य हरिभद्र का कहना है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध), अन्नपान गवेषणा रूप उचित अनुष्ठान उत्सर्ग है और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्य सेवन रूप उचित अनुष्ठान अपवाद है।
सर्वार्थ सिद्धि में विशेष रूप से कहीं गई विधि को अपवाद कहा है।
उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में आचार्य मल्लिपेण' स्याद्वाद मंजरी, कारिका में लिखते हैं -
सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करना उत्सर्ग है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य अपराधों से ग्रस्त मुनि को अन्य कोई उपाय न सूझ पड़े तो वह उचित यतन के साथ पंच कोटि विशुद्ध अभदय उद्दिष्ट आहार आदि का ग्रहण कर सकता है - यह अपवाद है। यह अपवाद भी उत्सर्ग की तरह संयम की रक्षा के लिए ही होता है। कहा भी है
सव्वत्थ संजमं संजमाओ अपाणमेव रक्खंतो।
मुच्चति अतिवाताओ पुणो विसोही ण तादिर त्ती। मुनि को सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए। संयम की अपेक्षा अपनी ही रक्षा करनी चाहिए। इस तरह मुनि संयम भ्रष्टता से मुक्त हो जाता है । वह फिर विशुद्ध हो सकता
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
-
-
69
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org