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अर्थात् अन्य वर्ण के लोग तो नरकगामी होते ही हैं। नैतिकता के लिए हम क्या खाते हैं, कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं, ये तीनों बातें ध्यातव्य हैं। यदि हम अभक्ष्य खायेंगे तो 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' के आधार पर मन बुरे विचार आयेंगे और उन्हें करने की प्रेरणा मिलेगी तो बुरा करके सदैव बुरा ही कहलायेंगे। इसी प्रकार यदि कुसंगति, वैश्यालय, मदिरालय आदि अगम्य स्थानों पर जायेंगे तो बुरा करने और बुरा बनने से अपने आपको नियंत्रित कैसे कर सकते हैं ? व्यक्ति की पहचान उसके कार्य के आधार पर बनती है। यदि वह मद्य- -माँस का व्यापार करता है तो समाज में उसकी पहचान अच्छे व्यक्ति के रूप में कभी नहीं बन सकती। इसलिए पाराशर नैतिक दर्शन में इस बात पर बल दिया गया है कि अखाद्य को न खायें, अगम्य में न जायें और अकार्य को न करें। जैसे काण्ट के दर्शन में नैतिकता की अनिवार्य मान्यता संकल्प की स्वतन्त्रता, आत्मा की अमरता और ईश्वर का अस्तित्व है, 15 उसी प्रकार पाराशर नैतिक दर्शन में नैतिकता अनिवार्य है कि हर क्षण हम यह ध्यान रखें कि हमें क्या खाना है, कहाँ जाना है और क्या करना है ?
पाराशर स्मृति में नैतिक मूल्यों के अन्तर्गत दान की महिमा का गुणगान किया गया। है 1 ऐसा माना जाता है कि जहाँ दान परहित के लिए उपयोगी होता है वहीं अपने लिए भी उपयोगी होता है, क्योंकि जो दान दूसरों को दिया जाता है वह असमय में किसी-न-किसी रूप में अपने पास वापिस आता है। अतः कलयुग में इसे प्रमुख नैतिक गुण मानते हुए कहा गया है
अर्थात् सतयुग में तप ही परमधर्म था, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञादि तथा कलयुग में दान । दान को सामाजिक, नैतिक गुणों में अनिवार्य माना जा सकता है, क्योंकि पर हित एवं सामाजिक कल्याण की भावना के बिना दान दिया ही नहीं जा सकता। दान से अनासक्ति जैसे सद्गुण का भी विकास होता है ।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमित्यूचुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ "
नैतिकता के लिए यह आवश्यक है कि जितनी अपेक्षा हो उतना ही ग्रहण करें। प्रायः यह देखा जाता है कि स्वार्थ में अन्धा हुआ व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसी की तरह ही अन्यों की भी अपेक्षा है। अगर हम अपनी न्यूनतम आवश्यकता को ध्यान में रखकर आवश्यक को ग्रहण करेंगे तो दूसरों की अपेक्षा की पूर्ति में सहयोग करेंगे। तभी पाराशर ऋषि ने कहा है.
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पुष्पं पुष्पं विचिनुयान्मूलनच्छेदं न कारयेत् । मालाकार इवोद्याने न तथाङ्गारकारकः ॥7
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। तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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