Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि -डॉ. जिनेन्द्र जैन आचार्य हरिभद्र जैनधर्म, दर्शन, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित तथा कथा काव्यों के सृजन में अपना विशेष स्थान रखते हैं। संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में प्राप्त इनका साहित्य उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं मौलिक सर्जनाशक्ति का परिचायक है। जैनागमों पर लिखे गये व्याख्या साहित्य और स्वतंत्र दर्शन विषयक चिंतन से उनके तलस्पर्शी अध्ययन/ज्ञान का बोध होता है। आचार्य हरिभद्र ने दर्शन के चिंतन में जहाँ खण्डन-मण्डन की शैली को अपनाया, वहीं उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता, समभाव और समन्वयात्मक दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व को वृद्धिंगत करते हैं। हरिभद्र के लिए विद्या विवादाय न होकर सत्यान्वेषण की पृष्ठभूमि से आप्लावित है। इसलिए आचार्य हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर सत्याग्रही प्रतीत होते हैं। लोकतत्त्वनिर्णय, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, संबोधप्रकरण, धूर्ताख्यान, अनेकान्तजयपताका और आगमों पर व्याख्याएं प्रमुख ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें समन्वयात्मक दृष्टिकोण के संदर्भ अंकित हैं। उन्होंने भ्रमर की तरह अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया और उसे जैन परम्परा में अनेकान्तिक दृष्टि के अन्तर्गत समाहित भी किया। आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि का मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक है कि हम उनके धर्म और दर्शन के क्षेत्र में दिये गये योगदान पर चर्चा करें। उनके ग्रन्थों में वर्णित समन्वयात्मक बिन्दुओं में प्रमुख विषय हैं :• धर्म एवं दर्शन विषयक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण। अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति। शुष्क दार्शनिक समालोचनों के स्थान पर उन अवधारणाओं के सार-तत्त्व और मूल उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न । अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय का प्रयत्न । तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - - 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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