Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ नैतिकता के संदर्भ में पाश्चात्य विचारकों में सुखवादी सुख को उपयोगितावादी समष्टि के अधिकतम सुख को, हर्ट स्पेन्शर ने क्रमिक विकास को', थामस हिल ने विकसित समाज को", इमेन्युअलकाण्ट ने शुभ संकल्प को' श्रेष्ठ माना है। भारतीय संस्कृति अध्यात्म की संस्कृति रही है। ऋषियों, महर्षियों ने अपने आपको तपा-खपाकर, साधना में लगाकर स्व का परिष्कार किया, आत्मिक विकास किया और संसार के कल्याण के लिए अपनी दिव्य वाणी से उनका मार्गदर्शन किया। इन ऋषियों, महर्षियों की आर्षवाणी स्मृति साहित्य के रूप में युग की धरोहर बनी हुई हैं। स्मृतियों में प्रत्येक वर्ण, आश्रम और व्यक्ति के जो कर्तव्य बतलाये गये हैं, उनसे यह ज्ञात होता है कि एक भारतीय का रहन-सहन और चरित्र कितना शुद्ध, पवित्र और उदात्त हुआ करता है। श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार इसी सदाचार और परोपकारमय जीवन से प्रभावित होकर अन्य देशों के यात्रियों ने भारतवासियों को 'देवता' की संज्ञा से अभिहित किया था। जहाँ का आम जन 'देवता' समझा जाता था उसका मूल कारण था ऋषिवाणी के आधार पर उनका जीवन । अनेक ऋषियों की दिव्य वाणी स्मृति साहित्य में सुरक्षित होकर आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। उसी में द्वैपायन व्यास के पिता महर्षि पाराशर की पाराशर स्मृति भी है, जिसमें जीवन को शुद्ध और सात्विक बनाने पर विशेष बल दिया गया है। वैदिक व्यवस्था वर्णाश्रम प्रधान व्यवस्था थी। अत: उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अपने-अपने कार्य निर्धारित थे। चारों वर्गों के आचार या नैतिकता को व्यक्त करते हुए स्वयं पाराशर ऋषि ने कहा है - अहमद्यैव तद्धर्ममनुस्मृत्य ब्रवीमि वः। चातुर्वर्ण्य समाचारं श्रृणुध्वं मुनिपुङ्गवाः ।। पाराशरमतं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम्। चिन्तितं ब्राह्मणार्थाय, धर्मसंस्थानाय च॥" अर्थात् पाराशर ऋषि कहते हैं कि हे मुनि श्रेष्ठों। मैं अब उसी धर्म का अनुसरण करके बतलाता हूँ। आप लोग चारों वर्गों के सम्यक् आचार सुनो । ब्राह्मणों की भलाई और धर्म की स्थापना का कार्य ही मेरे मत में पुण्य है और पाप का नाश करने वाला है। पाराशर के अनुसार चूँकि सभी वर्गों के अपने अलग-अलग कर्त्तव्य हैं और जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तो समाज का आचार पक्ष प्रबल होता है और सभी व्यवस्थाएं समुचित रूप से चलती रहती हैं, इसलिए ऋषिवर ने कहा जो कर्त्तव्य भ्रष्ट है वह धर्मविरुद्ध, नीतिविरुद्ध कार्य करता है और जो कर्तव्यनिष्ठ है वह धर्मयुक्त और नीतियुक्त कार्य करता है जिससे व्यक्ति एवं समाज का हित होता है, यथा--- 56 - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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