Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ 65. (क) वही, 1/310 (ख) ठाणं, 8/14 66. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। 67. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 219 68. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईपत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितव । 69. वही, पृ. 384, तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावराः प्राणाः इदमपि प्रायिकमेव अन्यथाकाशपर्वतविमान प्रतिष्ठिता ___अपि ते सन्तीति। 70. वही, पृ. 384, तथाजीवाः-शरीरादिपुद्गलरुपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेपु तेषां स्थितत्वात्। 71. वही, पृ. 384, अथाजीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाअर्जीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेद: ? उच्यते-पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्त:, उत्तरे त संग्रह्य - संग्राहक भाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्य तत्तस्याधेयमप्यर्थापत्तितः स्याद् यथाअपूपस्य तैलमित्याधाराधेय भावोप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति। तथा जीवा: कर्मसंगृहीताः संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति । निदेशक महादेवलाल सरावगी अनेकान्त शोधपीठ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं-341306 (राजस्थान) 14 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 116 -117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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