Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ वहीं पर तालफल के धर्म का आरोप कामासक्त पुरुष पर किया गया है कामेहि य संथवेहि य गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुते एवं आउक्खयम्मि तुट्टती।। अर्थात् कामभोगों और परिचितजनों में आसक्त प्राणी अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयुष्य के क्षण होने पर ऐसे टूटते हैं (मर जाते हैं) जैसे बन्ध से छुटा हुआ तालफल (ताड़फल) नीचे गिर जाता है। बन्ध से टुटे तालफल को कोई बीच में में बचा नहीं सकता, उसी प्रकार आयुष्य क्षण होने पर मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता। मोहं जंति नरा असंवुडा। अर्थात् विषयभोगों में मूर्च्छित व्यक्ति मोह को प्राप्त होते हैं। यहां 'जंति' क्रिया मूर्त का धर्म है, 'मोहं' अमूर्तपर आरोपित है। भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप विषयक दृष्टान्त दर्शनीय है - महयं पलिगोव जाणिया जंवि य वंदण-पूयणा इहं।" सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विदुमं ता पयहेज्ज संथवं॥ अर्थात् सांसारिक जनों का अतिपरिचय (संसर्ग) महान् पंक (परिगोप) है, यह जानकर तथा जो पूजा और वंदना मिलती है, उसे भी जिन शासन में स्थित मुनि गर्व रूप सूक्ष्म एवं कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य जानकर उस संस्तव-परिवंदन का परित्याग करे। यहां पर सांसारिक लोगों के साथ आसक्ति पर, जो भाव पदार्थ है, महागोप (महापंक) रूप मूर्त पदार्थ के धर्म का आरोप किया गया है। महापंक से निकलना मुश्किल है, उसी तरह से आसक्ति में फंस जाने पर उससे निकल पाना महा मुश्किल है। 'महावीरत्थुइ' उपचारवक्रता की दृष्टि से उत्कृष्ट है । उपचार वक्रता के अनेक विलक्षण उदाहरण मिलते हैं – जसंसिओ चक्खुपहे ठियस्स। अर्थात् जो उत्कृष्ट यशस्वी हैं तथा संसार के नयपथ में स्थित है। यहां 'नयन पथ' उपचारमूलक प्रयोग है। पथ का नयन पर आरोप हुआ है। भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप विषयक अनेक उदाहरण प्राप्त हैं -- से पण्णया अक्खये सागरे वा महोदधी वा वि अणंतपारे।" ___ अणाइले वा अकसायिमुक्के सक्के व देवाहिपती जुतीमं॥ अर्थात् वे प्रज्ञा के अक्षय सागर हैं, स्वम्भूरमण समुद्र के समान प्रज्ञा से अनन्त पार हैं। समुद्र जल के समान भगवान् का ज्ञान निर्मल है, कषायों से सर्वथा रहित तथा कर्म बन्धन से मुक्त है एवं देवाधिपति इन्द्र के समान द्युतिमान है। उपर्युक्त प्रसंग उपचारवक्रता का सुन्दर उदाहरण है। अनेक औपचारिक प्रयोग भाषिक चारुता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की सशक्तता को समृद्ध करते हैं। प्रज्ञा के 28 - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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