Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 33
________________ 1. अमूर्त अथवा भाव पदार्थ पर मूर्त के धर्म का आरोप- अमूर्त या भाव जगत् के पदार्थों पर मूर्त के धर्म का आरोप करने पर वर्णनीय या स्पष्ट बिम्ब सामाजिक मानस पटल पर अंकित हो जाता है । 'त्वन्नाम कीर्तनजलं श्मयत्यशेषम्' इस भक्तामरी पंक्ति में भक्त मानतुंग ने नामकीर्तन पर जल के धर्मों का आरोप किया है। उत्तराध्ययन में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं। कुछ उदाहरणों का विशेषण द्रष्टव्य है -- 1.1 ‘विणयं पाउकरिस्सामि'32 अर्थात् विनय को क्रमशः प्रकट करूंगा। प्रकट करना मूर्त पदार्थ का ही धर्म हो सकता है। विनय भाव पदार्थ है, हृदय का धर्म है, कार्यानुमेय है। मूर्त के धर्म का विनय-भाव पदार्थ पर आरोप किया गया है। 1.2 कण कुण्डगं चइत्ताणं विटुं भुंजइ सूयरे। एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए। जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्टा खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शील को छोड़कर दुःशील में रमण करता है। इस गाथा में चावलों की भूसी में विष्टा के धर्म का शील और दुःशील पर आरोप किया गया है, जो भाव पदार्थ हैं। 1.3 विणए ठवेज अप्पाणं' अर्थात् अपने आप को विनय में स्थापित करें। यहां ध्यातव्य है कि 'स्थापित करने' की क्रिया किसी मूर्त पदार्थ की ही होती है, जैसे ईंटों को घर में स्थापित करना आदि। यहां पर विनय अमूर्त एवं भाव पदार्थ है, उसमें आत्मा की संस्थापना कैसे? इस वाक्य के द्वारा विच्छित्ति एवं भाषिक लावण्य से विनय की महनीयता समुद्घाटित तो हो ही रही है, उत्तराध्ययन के ऋषि की कवि-प्रतिभा भी अभिलक्षित हो रही है। ___ 1.4 अप्पा चेव दमेयव्वो अर्थात् आत्मा का ही दमन करना चाहिए। यहां पर 'दमन' क्रिया लोक में मूर्त के लिए ही प्रसिद्ध है। जैसे शत्रु का दमन, दुष्ट हाथी का दमन आदि लेकिन यहां पर आत्मा जो भाव पदार्थ है, के लिए दमन क्रिया का उपयोग किया गया है, जो आत्म साधना के अतिशयित महत्त्व को अभिलक्षित करता है। यहां दमन-भेदनात्मक अर्थ का धारक नहीं बल्कि शम एवं शांति अर्थ का अभिव्यंजक है । वस्तुतः दमन शब्द 'दमु उपशमे' धातु से व्युत्पन्न होता है। 1.5 एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इन्दियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी॥ अर्थात् एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुने। मैं उन्हें जीतकर नीति के अनुसार विहार कर रहा हूं। यहां जीतना शत्रु मूर्त पदार्थ का धर्म है, उसका आरोप आत्मा-भाव पदार्थ पर किया गया है। 2. चेतन पर अचेतन के धर्म का आरोप- जब अचेतन के धर्म का चेतन पर आरोपण किया जाता है तो कथन में स्पष्टता के साथ विच्छित्ति की भंगिमा भी उपस्थित हो 30 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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