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मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषा के साथ विहार करता हुआ दा भाषाओं (सत्य भाषा ओर व्यवहार भाषा) का समता पूर्वक प्रयोग करे।
सत्य की स्वीकृति के दो रूप हैं — विनम्र स्वीकृति और आग्रहपूर्ण स्वीकृति । विनम्र स्वीकृति का स्वर यह होता है ---"मैं इतना जानता हूं। इससे आगे मुझसे अधिक ज्ञानी जानते हैं।' अपनी ज्ञान की सीमा का अनुभव करना, यह शंकितवाद है । शंकितवाद का प्रयोग यह होता है ---- मेरी दृष्टि में यह तत्त्व ऐसा है, पर मेरे पास समग्र ज्ञान नहीं है, जिसके आधार पर मैं कह सकूँ कि यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार सत्य की विनम्र स्वीकृति शंकितवाद है । शंकित का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किंतु अनाग्रह है।
विभज्यवाद के चूर्णिकार ने दो अर्थ किये हैं --- भजनीयवाद या अनेकान्तवाद । तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे --- मैं इस विषय में ऐसा मानता हूं । इस विषय की विशेष जानकारी के लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए।
विभज्यवाद का दूसरा अर्थ है --- अनेकान्तवाद । जहां जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे । अमुक वस्तु नित्य है या अनित्य ? ऐसा प्रश्न करने पर अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, अमुक अपेक्षा से यह अनित्य है, इस प्रकार उसको सिद्ध करे।
वृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किये हैं - 1. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद. 2. स्याद्वाद. 3. अर्थों का सम्यग विभाजन करने वाला वाद । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद । सभी पदार्थों का अस्तित्व अपनेअपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से है । पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं है।
बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। विभज्य के दो अर्थ हैं - विश्लेषणपूर्वक कहना एवं संक्षेप का विस्तार करना। मज्झिमनिकाय में शुभमाणवक के प्रश्र के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा- हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूं, एकांशवादी नहीं हूं। माणवक ने प्रश्न करते हुए पूछा- मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता। इस विपय में आपका क्या चिन्तन है ? भगवान् बुद्ध ने इस प्रश्न का समाधान हां या ना में नहीं दिया किंतु उन्होंने विभागपूर्वक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया। यदि गृहस्थ या त्यागी मिथ्यात्वी हैं तो वे आराधक नहीं हो सकते तथा यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपन्न हैं तो आराधक हैं । इसलिए कुछ कथन ऐसे होते हैं जिनका पूरा विश्लेषण किये बिना वे सत्य हैं या असत्य, ऐसा नहीं कहा जा सकता।"
संसार में अनेक प्रकार की विचित्रताएं पाई जाती हैं। सूत्रकृतांग में लिखा है
__ आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, णाणप्पगारं पुरिसस्स जातं।
सतो य धम्म असतो य सीलं संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं॥8 मैं यथार्थ का निरूपण करूंगा। पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है । मैं साधु के धर्म, असाधु के अधर्म तथा साधु की शांति और असाधु की अशांति को प्रगट करूंगा।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 116--117
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