Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीति। अन्नाणिय सत्तट्टी वेणइयाणं च बत्तीसा॥ तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वणिया इहउज्झयणे। सब्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं ति॥ __- सुत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 112, 113 सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के समवसरण अध्ययन में चार वादों का वर्णन प्राप्त होता है। ---- 1. क्रियावाद, 2. अक्रियावाद, 3. अज्ञानवाद, 4. विनयवाद । इनमें क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, अज्ञानवादियों के 67 तथा विनयवादियों के 32 प्रकार बतलाये गये हैं। पालि साहित्य में महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है - पूरणकस्सप, मक्खलिगोसाल, अजितकेसकम्बलि, पकुधकच्चायन, संजयवेलट्ठिपुत्त तथा निगण्ठनातपुत्त (महावीर)। इनकी विचारधाराएं प्रमुख रूप से क्रियावादी, अक्रियावादी के रूप में चल रही थी, जो कर्म और उसके फल को मानते थे वे क्रियावादी थे। उसे जो नहीं मानते थे वे अक्रियावादी थे। भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध – ये दोनों ही क्रियावादी थे, परन्तु दोनों के क्रियावाद में अन्तर था। तथागत बुद्ध ने क्रियावाद को स्वीकार करते हुए भी शाश्वत आत्मवाद को स्वीकार नहीं किया जबकि भगवान महावीर ने आत्मवाद की मलभित्ति पर ही क्रियावाद का भव्य भवन खड़ा किया है। जैसा कि आचारांग में लिखा है, जो आत्मवादी हैं वे लोकवादी हैं और जो लोकवादी हैं वे कर्मवादी हैं, जो कर्मवादी हैं वे क्रियावादी हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है - आगम युग में अनेक वाद प्रचलित थे। उनमें कुछ आत्मवादी थे और कुछ अनात्मवादी। दोनों ने अपने-अपने अभिप्रेत पक्ष को तर्क के बल पर स्थापित किया था। भगवान महावीर ने अनुभव अथवा साक्षात्कार को प्रधानता दी। वे जानते थे कि तर्क के द्वारा स्थापित पक्ष प्रतितर्क से उत्थापित भी होता है, किंतु साक्षात्कार किया हुआ तत्त्व सैकड़ों तर्कों से भी खण्डित नहीं होता, इसलिए भगवान् ने साक्षात्कार के मार्ग को मुख्यता दी। जिसको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है वह वस्तुवृत्या आत्मवादी होता है। उसको आत्मा के अस्तित्व में शंका नहीं रहती। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति होने पर लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का स्वीकार होना स्वाभाविक है।' सूत्रकृतांग के षष्ठ अध्ययन महावीरत्थुई में लिखा है - उर्दू अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे, दीवे व धम्मं समियं उदाहु॥ अर्थात् ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन्हें नित्य और अनित्य – इन दोनों दृष्टियों से भली-भांति देखकर प्रज्ञ ज्ञातपुत्र ने द्वीप की भांति सबको शरण देने वाले, दीपक की भांति सबको प्रकाशित करने वाले अथवा धर्म का सम्यक् प्रतिपादन किया है। 16 - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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