Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ सम्यग् व्यवहार में अनेकान्तदृष्टि सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में - डॉ. अशोककुमार जैन भारतवर्ष की दो सांस्कृतिक परम्पराएं बहुत प्राचीन हैं। एक है श्रमण परम्परा और दूसरी है वैदिक परम्परा । दोनों परम्पराओं का विपुल वाङ्मय है। जिनमें ज्ञान - विज्ञान, न्याय-नीति, आचार-विचार की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । वैदिक परम्परा में जो महत्त्व वेदों का है, बौद्ध परम्परा में त्रिपिटक का है, वही महत्त्व जैन परम्परा में आगम साहित्य का है। धर्म, संस्कृति और दर्शन – ये तीनों मानव-जीवन के विकास की सीमा रेखाएं हैं। इन तीनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। तीनों का समन्वित रूप ही मानव-जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है । संस्कृति जब आचारोन्मुख होती है तब उसे धर्म कहा जाता है और जब वह विचारोन्मुख होती है तब उसे दर्शन कहा जाता है। मूल आगम ग्रंथों में दार्शनिक तत्त्वों का विशद विवेचन किया गया है। बौद्धों के दीघनिकाय के 'सामञ्ञफलसुत्त' में जैसे तत्कालीन दार्शनिक मतवादों का वर्णन है वैसे ही सूत्रकृताङ्ग आगम में विभिन्न मतवादों का निरूपण है। पंचभूतवाद, बकवाद - अद्वैतवाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, आत्मकर्तृत्ववाद, सद्वाद, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का प्रथम-स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है । तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक अस्पष्ट सा क्रम है। द्वितीय- श्रुतस्कन्ध में पर मतों का खण्डन किया गया है - विशेषत: वहां जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद आदि की चर्चा है। प्राचीन दार्शनिक मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए सूत्रकृतांग का अत्यंत महत्त्व हैं । के भगवान् महावीर के युग में 363 मतवाद थे। यह समवायगत सूत्रकृताङ्ग विवरण तथा सूत्रकृताङ्ग निर्युक्ति से ज्ञात होता है । तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 15 www.jainelibrary.org

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