Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ इसी श्लोक के पाद टिप्पण में लिखा है, पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। 'नाना प्रकार' का तात्पर्य है अनेक अभिप्राय वाला, अनेक शील होना । अनेक पुरुष अनेक अभिप्राय वाले, भिन्न-भिन्न शील वाले होते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किंतु एक ही पुरुष अनेक परिणामों में परिणत होता हुआ अनेक प्रकार का पुरुष हो जाता हैं, एक अनेक हो जाता है। वह कभी तीव्र परिणाम वाला, कभी मंद परिणाम वाला और कभी मध्यम परिणाम वाला हो जाता है। कभी वह मृदु और कभी कठोर हो जाता है। कभी अकार्य कर उससे निवृत्त हो जाता है और कभी उसमें प्रवृत्त हो जाता है, सतत उसका आचरण करता है। किसी व्यक्ति को कोई कष्ट अत्यंत दुःखदायी होता है और किसी को किसी दूसरे कष्ट से दुःख होता है । दारुण और अदारुण स्वभाव से वह एक होते हुए भी अनेक हो जाता है। स्थानांग सूत्र में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब दो पदों में अवतरित है । सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पंचम अध्ययन 'आचारश्रुत' का दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है । उसका फलित यह है कि एकान्तवाद मिथ्या है, अव्यवहार्य है । अनेकान्तवाद सम्यग् है, व्यवहार्य है । इस अध्ययन के 17 श्लोकों में 17 प्रतिपक्षी युगलों का कथन है । इनका संज्ञान सम्यक्त्व की पृष्ठभूमि बनता है, इसलिए सूत्रकार इनके अस्तित्व को स्वीकार करने और नास्तित्व का स्वीकार न करने का परामर्श देते हैं । भगवान् महावीरकालीन अनेक दर्शन इन द्वन्द्वों को स्वीकृति नहीं देते थे । कुछ दार्शनिक जीव, धर्म, बन्ध, पुण्य, देवता, स्वर्ग आदि को स्वीकार करते थे और कुछ उनको नकारते थे। जैनदर्शन ने उन सभी द्वन्द्वों को स्वीकृति प्रदान की है। वे द्वन्द्व हैं -- लोक- अलोक, जीव- अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना - निर्जरा, क्रिया- अक्रिया, क्रोध-मान, माया - लोभ, प्रेम-द्वेष, चतुर्गतिक संसार - अचतुर्गतिक संसार, देव-देवी, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धिगति- असिद्धिगति, साधु-असाधु, कल्याण- पाप 20 दार्शनिक लोक को एकान्ततः शाश्वत या अशाश्वत, शास्ता (प्रवर्तक) को एकान्तत: नित्य या अनित्य, प्राणी को एकान्ततः कर्मबद्ध या कर्ममुक्त, एकान्ततः सदृश या विसदृश मानते हैं वे मिथ्या प्रवाद करते हैं । अनेकान्तवाद के अनुसार व्यवहार इस प्रकार घटित होगाआचार्य महाप्रज्ञ व्याख्या करते हुए कहते हैं. लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । * भव्य प्राणी मुक्त भी होंगे और मुक्त नहीं भी होंगे। * प्राणी कर्मबद्ध भी हैं और कर्मबद्ध नहीं भी हैं । * प्राणी सदृश भी हैं और विसदृश भी हैं। 'छोटे-बड़े प्राणी को मारने से कर्मबन्ध सदृश भी होता है और विसदृश भी । * आधाकर्म का उपभोग करने से कर्मबन्ध होता भी है और नहीं भी होता । * * तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 19 www.jainelibrary.org

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