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अल्प है अतः अल्पता के कारण प्रायश्चित्त द्व रा उसका परिहार सम्भव है । जो आये हुए अशुभ का नाश करता है तथा फलांतर को पैदा नहीं करता उस कर्म को प्रायश्चित्त कहते हैं, अर्थात् पाप ( प्रायस् ) विशोधन ( चित्तम् ) जिससे हो उसे प्रायश्चित्त कहते | यह 'प्रायश्चित्त' शब्द पापनिवर्तक के निमित्त रूप कर्म विशेष में रूढ़ है । संकर नामक पाप प्रायश्चित्त के द्वारा परिहरणीय है । स्वयं उत्पन्न दुष्टअदृष्ट रूप संकर के परिहार के लिये प्रायश्चित्त आवश्यक है । यदि आलस्यवश प्रायश्चित्त का अनुष्ठान नहीं किया तो प्रधान कर्मरूप ज्योतिष्टोमादि यज्ञ फलभूत स्वर्ग भोग के समय वह संकर नामक पाप फलोन्मुखी होता है और ऐसा होने पर हिंसाजन्य अधर्म जब तक अपना भयरूप फल पैदा करता रहता है तब तक वह भय रूप फल अवश्य सहन करना होता हैं । अर्थात् संकर जन्य दुःख अवश्य ही भोक्तव्य है, यदि प्रायश्चित्त नहीं किया हो। कथ्य यह है कि किया हुआ कोई भी कर्म फलदायी होता है अतः वह फल देने पर्यन्त क्षीण नहीं होता । यद्यपि 'अङ्गापूर्व प्रधानापूर्वातिशयमुत्पाद्य विनश्यति' यह सिद्धांत है तथापि मूलतः उसका विनाश स्वीकार नहीं किया गया है । पुण्यसमूह से युक्त स्वर्ग नामक अमृत सरोवर में नहाने वाले जो इन्द्रादि कुशल पुरुष हैं वे पाप द्वारा की हुई हिंसा से जन्य देवासुर संग्राम इत्यदि रूप को निरन्तर सहन करते हैं - यह लोकप्रसिद्ध बात है ।
यद्यपि संकर जन्य दुःख का उपभोग करना ही होता है अतः यज्ञानुष्ठानों में याज्ञिकों की प्रवृत्ति होना सत्फलिका नहीं है तथापि संकर स्वल्प होते हैं तथा पुण्यकर्म महान् होते हैं अतः स्वल्प-संकार महान् पुण्यकर्मों को क्षीण करने के लिये पर्याप्त नहीं है, क्योंकि याग के अनुष्ठाता के पुण्यात्मक कर्म दक्षिणा इत्यादि - अधिक हैं । प्रधान कर्म - स्वर्गप्राप्ति रूप यज्ञ में यह स्वल्प संकर अन्तर्भूत होता हुआ स्वर्ग में थोड़ा दुःख का सम्भेदन करेगा। इस प्रकार अल्प दुःख के भय से महत्सुख को त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि 'हरिण धान को खायेंगे' यह सोचकर कभी धान की बुवाई नहीं रोकी जाती तथा 'भिक्षुक मांगने आयेंगे' यह सोचकर कभी पतीली में की जाने वाली रन्धन क्रिया रोकी नहीं जाती अविशुद्धिः सोमादियागस्य पशुवीजादिवधसाधनता यथाह स्म भगवान्पञ्चशिखाचार्यः स्वल्पः संकरः सपरिहारः
प्रत्यवमर्ष इति । स्वल्पः सङ्करो ज्योतिष्टोमादिजन्मनः प्रधानापूर्वस्य पशुहिंसादिजन्मनानर्थहेतुनापूर्वेण सपरिहारः कियतापि प्रायश्चित्तेन परिहर्तुं शक्योऽथ प्रमादतः प्रायश्चित्तमपि नाचरितं प्रधानकर्म विपाकसमये स विपच्यते तथापि यावदसावनथं सूते तावत्सप्रत्यवमर्षः प्रत्यवमर्षेण सहिष्णुतया सह वर्तत इति मृष्यन्ते हि पुण्य सम्भारोपनीतस्वर्गसुधा महाह्रदवगाहिनः कुशलः पापमात्रोपपादितां दुःखर्वाह्निकणिकाम् ।
याग में पशुवध तथा तृणादि का छेदन 'हिंसा' नहीं है। अध्वर यज्ञ का नाम है । ध्वर का अर्थ है हिंसाकार्य एवं उस हिंसा का प्रतिषेध करना ही अध्वर कहलाता है । 'इयं हिंसा इयमहिंसा' यह वेद से ज्ञात होता है । समस्त जगत् के कल्याण के लिये प्रवृत्त वेद कैसे किसी पुरुष को हिंसा में प्रवृत्त करायेगा ? इसलिये वेद प्रतिपादित हिंसा अहिंसा ही है क्योंकि यज्ञ में समर्पित ओषधि, वनस्पति इत्यादि उच्च गति को प्राप्त करते हैं । यज्ञानुष्ठाता उन पशु, ओषधियों इत्यादि की हिंसा नहीं करता प्रत्युत
खंड २२, अंक ३
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