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वाल्मीकि रामायण में दार्शनिक तत्त्व
विजय रानी
धर्म और दर्शन भारतीय संस्कृति के दो मूल तत्त्व हैं, यों तो ये दोनों तत्त्व एक दूसरे से अविभक्त रूप से संयुक्त हैं फिर भी यदि सूक्ष्मता से विचार करें तो समझ में आता है कि धर्म की पृष्ठभूमि में दर्शन निहित है।
वेद भारतीय दर्शन के मूलस्रोत हैं। वहां इन्द्र, अग्नि, सविता, विष्णु, पुरुष आदि देवों के रूप में जगत्कर्ता परमात्मा के दर्शन होते हैं, यज्ञों को अत्यन्त महत्त्व प्रदान किया गया है, सृष्टि से पूर्व कौनसा तत्त्व था, इस विषय पर भी चिन्तन उपलब्ध होता है। समस्त औपनिषदिक साहित्य भी आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारधारा से भरपूर है।
वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य पर दृष्टि डालें तो सर्वप्रथम ग्रन्थ आदि-महाकाव्य रामायण के रूप में हमें उपलब्ध होता है जो आदिकवि वाल्मीकि की अद्भुत और रसमयी कृति है। यह मूलतः काव्य ग्रन्थ होते हुए भी उच्च मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत एक धार्मिक, राजनैतिक, आचारिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रन्थ भी है । यद्यपि प्रत्यक्षतः इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम और माता सीता के जीवन की घटनाओं का काव्यात्मक सांगोपांग चित्रण किया गया है, तथापि एक शोधसाधक परोक्षतः इसमें दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों को भी खोज लेता है। इसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप प्रस्तुत शोध-पत्र में कतिपय उन दार्शनिक तत्त्वों की प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है, जो इस ग्रन्थ के अध्ययन से उजागर होते हैं। १. ईश्वर तत्त्व
यों तो महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को मानव सुलभ भावनाओं से युक्त मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में प्रदर्शित किया है फिर भी वे स्थान-स्थान पर उनको ईश्वर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, विष्णु आदि परमतत्त्व के रूपों में देखने का लोभ-संवरण नहीं कर सके हैं। अयोध्याकांड के प्रथम सर्ग में ही श्रीराम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकिजी ने उन्हें स्वयंभू ब्रह्मा के समान बताया है और इतना ही नहीं उन्होंने उन्हें सनातन विष्णु ही माना है जिन्होंने रावण का वध करने के लिए भूलोक पर अवतार लिया। युद्ध काण्ड में रावण-सेना पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए श्रीराम का जो रूप प्रदर्शित किया गया है वह किसी दिव्य शक्ति में ही हो सकता है, कहा भी है-"जैसे प्रजा प्रलयकाल में काल-चक्र का दर्शन करती है उसी प्रकार राक्षस
चण्ड २२, अंक ३
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