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वेद और आगमकाल में पर्दा-प्रथा
मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही'
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी-"ह्वेन आई वाज चाइल्ड"-पुस्तक में लिखा है-'पर्दे से लिपटी हुई औरत ऐसी लगती है मानो कोई जीवित कब्र चली जा रही हो।'
इंगलैण्ड के महान् निबन्धकार श्री बेकन ने एक निबन्ध में लिखा है--'कपड़ों से ढका हुआ मुंह नारी जाति का सबसे बड़ा पतन है। लगता है कि ईश्वर के दरबार में उसने सबसे बड़ा पाप किया था जो आज मुंह छिपाकर चलना पड़ रहा है।'
किपलिंग ने इस सम्बन्ध में अपनी व्यंग्यात्मक भाषा में कहा ---'नारी गृहस्थ जीवन में इतनी आलिप्त रहती है कि बेचारी को सूर्य देखना भी नसीब नहीं हैं।'
पश्चिम के अन्य विचारक मिल्टन ने 'पैराडाइज लॉस्ट' में एक स्थान पर लिखा है-'पर्दे से तो अच्छा है कि नारी जाति चक्षुहीन ही पैदा हो ताकि देखने की भी आवश्यकता नहीं।'
उक्त अभिमत पर्दे की अनुपादेयता को अविकल्पतः अभिव्यक्त करते हैं किन्तु एक ऐसा युग आया जिसमें नारीमात्र के लिए पर्दा अनिवार्य माना जाने लगा। इसका प्रारम्भ कब हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन होगा। एक अभिमत के अनुसार मुगलकाल से इसका प्रारम्भ माना जाता है किन्तु तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मुगलकाल से पहले भी पर्दाप्रथा का प्रचलन रहा है।' महाकवि कालिदास के शब्दों में महर्षि कण्व के दो शिष्य शाङ्गधर और शारद्वत जब गौतमी के साथ शकुन्तला को लेकर राजा दुष्यन्त के पास जाते हैं तब दुष्यन्त शकुन्तला को लक्ष्य करके जिज्ञासा करता है
केयमवगुंठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या।
__ मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् ॥ यहां अवगुंठनवती शब्द पर्दे वाली नारी के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतः पर्दे का प्रचलन मुगलकाल से भी पूर्व रहा है-ऐसा मानने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।
कालिदास से भी पूर्व इतिहास एवं सामाजिक परंपराओं का अध्ययन और अनुसंधान करते हुए जब हम आगम, त्रिपिटक एवं वेद के युग में पहुंचते हैं तब पर्दा-प्रथा के सम्बन्ध में भिन्न तथ्य प्राप्त होते हैं।
वैदिक काल में पर्दा प्रथा के प्रचलन का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। उस समय
खण्ड २२, अंक ३
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