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कृत्तिका से लेकर अश्विनी तक २८ नक्षत्रों के लिए भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है उस नक्षत्र में उसका भोजन कर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। जैनों में मांस अभक्ष्य है, फिर यह कथन कहां तक संगत है। हर व्यक्ति असमंजस में आना स्वाभाविक है । जैन आगम वनस्पति कोश में इस मांस शब्द की आयुर्वेद के निघंटुओं के माध्यम से सटीक व्याख्या की गई है। आयुर्वेद निघंटुओं में वनस्पति की मज्जा, अस्थि, गर्भाशय और मांस शब्द का प्रयोग हुआ है । यह प्रयोग द्रष्टव्य है
भल्लातकस्य त्वग मांसबृहणस्वादुशीतलम् ॥ भिलावे की छाल और मांस बृहण (रस रक्तादि वर्धक) स्वादु तथा शीतल होते हैं । भिलावे के मांस का अर्थ है भिलावे का गुदा।
(श्रीमद् वृद्धवाग्भट्ट विरचित अष्टांग संग्रह सूत्रस्थान सप्तमोध्याय श्लोक १९८) दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंट का है
कृमि श्लेष्मानि लहरा मांस स्वादु हिमं गुरु,
बृहण श्लेष्मलं स्निग्धं पितमारुतनाशनम् ॥२५६।। कैयदेवनिघंटु के श्लोक २५३ और २५४ में बिजौरे के पर्यायवाची नाम हैं। श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म है । बिजौरे का मांस- फल का गुदा स्वादिष्ट शीतल, गुरु, बृहण (धातुवर्धक) कफवर्धक स्निग्ध तथा वात पित को नष्ट करता है।
(कैयदेव निघंटु औषधि वर्ग पृ. ५१) ऊपर लिखे दोनों संदर्भो से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पति के गूदे के अर्थ में होता है।
सूर्यप्रज्ञप्ति में उल्लिखित नक्षत्र भोजनों (मांसपरक शब्दों) पर अनेक साधुओं ने अपनी-अपनी व्याख्या दी है। उन नक्षत्र भोजनों का प्रचलन आज उसी रूप में चल रहा है। कुछेक व्याख्याएं हमें उपलब्ध हुई हैं। वह व्याख्या किनकी है, इसका उल्लेख नहीं मिला है। हमें जिस व्यक्ति के द्वारा उपलब्ध हुई है हम उसी के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. मुहूर्त चिंतामणी २. सूर्य प्रज्ञप्ति ३. जैन आगम वनस्पति कोश ४. पुराना संग्रह ५. मुनिश्री सागरमलजी 'श्रमण' ६. अमोलक ऋषिजी ७. स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बंगानी (बीदासर) ८. श्री सुमेरमलजी चोपड़ा (गंगाशहर)
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तुलसी प्रज्ञा
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