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आहत नाद से समस्त संसार का व्यापार चलता है। शब्द और स्वरोत्पत्ति आहत-नाद से हुई है। आहत-नाद के दो भेद हैं, सुमधुर और अमधुर-नाद । सुमधुरनाद से मन प्रसन्न होता है और अमधुर-नाद मस्तिष्क में चिड़चिड़ापन पैदा होता है । हमारे कानों की श्रवणेन्द्रियां उसे सुनना पसन्द नहीं करती हैं।
महामंत्र की द्वितीय पंक्ति में शब्द-नाद के साथ स्वर-नाद भी तरंगित होता है, जिसका ज्ञान मंत्र-साधक को नहीं होने से वह नाद के सौन्दर्य स्वरूप का आनन्द प्राप्त नहीं कर पाता। उक्त पद के प्रत्येक शब्द (अक्षर) में सुमधुर-नाद का स्वरूप निम्न प्रकार हैं
• प्रथम अक्षर "ण" । "ण" का प्रयोग "न" के तौर पर करते हैं, जैसे, नमन,
नमस्कार आदि । “ण” की ध्वनि वीणा, मृदंग एवं शास्त्रीय नृत्य कत्थक की अनेक रचनाओं में पायी जाती है। वीणा वाद्य के तार पर मिजराव द्वारा उल्टा-सीधा प्रहार किया जाता है। प्रहार की इस क्रिया को डा, डिड, डाणा अथवा डा, डिण, डाणा के शब्दों को उपयोग में लिया जाता था, जो वर्तमान में दा, दिर, दार बन गया है। मृदंग की रचनाओं में डेडे डिण, डिण के बोल आज भी बजाये जाते हैं। मृदंग के बोलों के आधार पर ही नृत्य कला की रचनाएं होती हैं। इन रचनाओं में झिण, झण णण, झिणकिट, किण कत्तान, घणणण, आदि अनेक प्रकार से ध्वनियों को प्रकट
किया जाना है।
महामंत्र के 'ण" अक्षर में संगीतकला का सप्तम स्वर न (निषाद) की ध्वनि का बोध कराता है। मंत्र साधक को इसका ज्ञान नहीं होता है किन्तु मानव शरीर में अन्तर-नाद के तौर पर स्वतः ही मधुर तरंगें प्रकट होती हैं, जो नाद-सौन्दर्य के कारण साधक के हृदय में आनन्द की तरंगें तरंगित करती हैं।
० द्वितीय अक्षर "मो" । "म" अक्षर की ध्वनि अति मधुर है । सर्व प्रथम शिशु
"मा" शब्द का उच्चारण करता है। इस अक्षर में ममत्व की भावना है। प्रभु प्रसन्न होते हैं "म'' की मधुर तरंगों को सुनकर । संगीत कला के सप्तस्वरों में इसका चतुर्थ स्थान है। जिसे मध्यम स्वर कहते हैं। चार श्रुति वाले इस स्वर के पूर्व में सा, रे, ग स्वर और बाद में प, ध, नि स्वर स्थित हैं। सा से भ ए श्रत्यांतर पर मध्यम-भाव तथा म से तार सप्तक के सा स्वर १३ श्रुत्यान्तर पर पंचम-भाव दरसाते हैं। ये दोनों भाव शब्द एवं स्वरों में नाद-सौन्दर्य की सष्टि करते हैं। अत: णमो (नमो) शब्द में संगीत के निषाद और मध्यम स्वर के दोनों भाव नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से विद्यमान हैं। • तृतीय अक्षर सि :-'सि' अक्षर तो स्वयं सा का स्वरूप है। सिधि प्राप्त करने के लिए सा की मधुर तरंगें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यह अचल स्वर सप्तक के समस्त स्वरों का राजा है। किसी भी मंत्र की साधना कीजिये इस स्वर की मधुर तरंगें उन शब्दों के साथ स्वयम्भू नाद के तौर पर नाद
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तुलसी प्रज्ञा
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