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ऐसा प्रतीत हुआ कि कृत संवत् - मालव संवत् - विक्रम संवत् - यह नामावलि कड़ियों के रूप में सटी हुई है ।
उक्त मालववंश का मूल 'मौर्यवंश' है। चूंकि मौर्य वंश राष्ट्रीय सत्ता पर अधिकार किए हुए था, अतः उसे मालव भूमि पर अधिकार होने पर भी 'मालवेश' कहना उचित नहीं हैं । कुणालपुत्र सम्प्रति से यह वंश विधिपूर्वक 'मालवेश' था; परन्तु उसका मालवाधिपति होने पर भी किसी घटक (राजा) को 'मालवेश' किसी ने नहीं लिखा । परन्तु विक्रमचरित पोत्र विक्रमादित्य — को उसके आश्रित ज्योतिर्विद् कालिदास ने मालवेश लिखा है-
इससे मालूम पड़ता है, 'मालव संवत्' नाम से प्रचलित कालगणना भी ३६ईसवी पूर्व से मान्य रही होगी ।
ब्रह्म संसद्
यत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे । श्री विक्रमाकर्क- नृपराजवरे समासीत् ॥
भारतीय नरेशों की यह परम्परा रही है कि उनके राजदरबार में कलाकारोंकवियों-गुणियों - पण्डितों का खासा जमावड़ा रहता था । संयोगवश ज्योतिर्विद् कालिदास 'विक्रमचरित' तथा 'विक्रमादित्य' की ब्रह्म संसद में वर्तमान था और दोनों पक्षों का स्पष्ट विवरण देते हुए कालिदास लिखता है
१. विक्रम (चरित) - धन्वन्तरिः क्षपणकामरसिंह - शक्रः वेताल भट्ट-खटखर्पर- कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ||
- ज्योतिर्विदाभरण; श्लोक ७
खण्ड २२,
२. विक्रमादित्य - शक्रः सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गु दत्तः जिष्णुः त्रिलोचनहरी घट खर्पराख्यः । अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंह पूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽभी ॥ - पूर्ववत् श्लोक ८
कितने नाम छूट गए, कितने नाम जुड़ गए - यह विश्लेषण कठिन नहीं है । अलबत्ता - -- ज्योतिविद् कालिदास उभय ब्रह्म संसद का घटक है; एक स्थान पर वह राजाश्रित ज्योतिर्विद् मात्र है; अन्यत्र वह राजाश्रय निवृत्त राजसखा है । उसने अपना समय कलि संवत् ३०६८ ३३ ईसवी पूर्व का बताया है ।
अथ प्रमाणीकरण
अंक २
हमने प्रासंगिक 'विक्रम संवत्' ३६ ई० पू० से गणनाधीन माना है । हम इसे साक्ष्य से प्रमाणित करते हैं ।
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- पूर्ववत्, १०
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