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में लेखक ने 'वाग्भटालंकार' के टीकाकार सिंहदेवगणि के कथन-'इसमें क्वचिद् मूल में अविद्यमान होने पर भी रेफ का आगम होता है'-को उद्धृत करके निम्न दोहे को संशोधित किया है
चारूद तुहु अइमां डि अउ, दीसइ सव्व पढन्तु ।
कहि मा कई अहं आविसइ, अम्हं के रनु कन्तु ॥ भायाणीजी द्वारा संशोधित
चात्रग (चात्रुग) तुहं अइ पंडियउ, दीसहि सव्व पढंतु ।
कहि मा कइ अहँ आविसइ, अम्हहँ केरउ कंतु ।। इस संशोधन में 'चारूद' को जबरन 'चात्रग' बना दिया गया है। वस्तुतः यह 'चाउल्लड़' का दूसरा रूप है जिसमें रेफागम हो गया है । 'चाउल्लड़' को राजस्थानी में 'अड़बो' भी कहते हैं। यह नकली पुतला पशु-पक्षियों से अनाज की सुरक्षा हेतु किसानों द्वारा खेतों में बना दिया जाता है। दोहे में खेत रुखालने वाली एक युवती ऐसे ही एक पुतले को संबोधन कर रही है कि हे चारुद ! तूं सब कुछ पढ़ा-लिखा दीखता है इसलिए लिख-मांड कर बता कि मेरा पति कब आयेगा?
___'राउरवेल'-शिलालेख के भाषा-स्वरूप पर टीका करते हुए लेखक ने उसमें पुरानी मैथिली, पुरानी मराठी, पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, गौड़ प्रदेश और मालवी बोली के अवशेष खोजने की चेष्टा की है। इस विषय में हम उनका समर्थन नहीं कर सकते । शिलालेख में जो भाषा है उसमें मैथिली, मराठी, पश्चिमी हिन्दी के अवशेष नहीं हैं।
हिन्दी साहित्य अकादमी, गांधी नगर को इस प्रकाशन के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए जिससे हिन्दी पाठकों को डॉ० भायाणी के विचारों को जानने का सुअवसर मिल गया है। ३. निग्रंथ (प्रवेशांक) संपादक-एम. ए. ढाकी एवं जितेन्द्र शाह, प्रकाशक-शारदा बेन चिमनभाई एज्यूकेशनल रीसर्च सेन्टर, शाही बाग, अहमदाबाद-४, सन्, १९९५ मूल्य-१५० रुपये।
हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी--तीन भाषाओं में प्रकाशित निग्रंथ का प्रवेशांक पं. दलसुखजी मालवणिया को समर्पित है। वार्षिक अंक के रूप में प्रकाशित होने वाले इस जर्नल में जैन शोध को सुसंपादन के साथ प्रकाश में लाने का संकल्प लिया गया है किन्तु पहले ही अंक में संपादकों को अपने संकल्प-पूर्ति में दरपेश आई मजबूरी का इजहार भी करना पड़ा है ।
जर्नल में के. आर. चन्द्र, बी. एम. कुलकर्णी, एच. सी. भायाणी, एन. पी. जोशी, एम. ए. ढाकी जैसे मूर्धन्य विद्वानों के साथ जगदीशचन्द्र जैन एवं अगरचंद नाहटा जैसे दिवंगत लोगों के भी लेख हैं। गुजराती खंड में वादीन्द्र मल्लवादी श्रमाश्रमण के समय पर जितेन्द्र शाह का महत्त्वपूर्ण लेख है। इसी प्रकार मधुसूदन ढाकी का 'वादी-कवि बप्पभट्टि सूरि'-लेख भी सूचनाओं से भरापूरा है। खण्ड २२, अंक ३
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