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हए।" देवराज इन्द्र ने सौ यज्ञ करके स्वर्ग लोक को प्राप्त किया, महर्षियों ने उग्र तपस्या करके दिव्य लोकों में स्थान प्राप्त किया।" महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि कर्म ही सब कारणों का प्रायोजक कारण होता है, क्योंकि जो व्यक्ति कर्म नहीं करता उसके धर्म, अर्थ, काम कुछ भी सिद्ध नहीं होते।
जहां तक कर्मों के शुभ-अशुभ या धर्म-अधर्म विभेद-ज्ञान का प्रश्न है, वाल्मीकि कहते हैं कि धर्म का ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्जेय है, सब प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा ही उस शुभ-अशुभ के विभेद को ठीक प्रकार से जानता है। गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं-'गहनाकर्मणो गतिः।'
वाल्मीकि रामायण में परलोक गमन सम्बन्धी उदाहरण पदे पदे उपलब्ध होते हैं । श्रीराम जाबाल मुनि को कहते हैं- सत्य, धर्म, पराक्रम, दया, प्रियवादिता. देवअतिथि और ब्राह्मणों की पूजा-इन सबको सन्तों ने स्वर्गलोक का मार्ग कहा है। भरत कैकेयी की भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि कौशल्या को पुत्र से अलग करने पर तुम लोक और परलोक में दुःख प्राप्त करोगी ।१८
इस प्रकार कर्म-फल, पुनर्जन्म और लोक-परलोक-ये तीनों भिन्न नहीं हैं बल्कि एक ही शृङ्खला की सम्बद्ध कड़ियां हैं-भूतकाल के कर्मों का फल, वर्तमान काल में मिलता है, तो वर्तमान कालिक कर्मों का फल भविष्य काल में मिलता है, लेकिन कभी-कभी वर्तमान कालिक कर्मों का फल वर्तमान जन्म में भी मिल जाता है जैसे राजा दशरथ को अन्धमुनि की हत्या का परिणाम इसी जन्म में श्रीराम वियोग के रूप में मिलता है।
कर्मफल व्यवस्था में यह भी माना गया है कि अपने पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने पर जीव उच्चलोक को छोड़कर पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है । इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भरत कहते हैं-अयोध्या श्रीराम के चले जाने से उसी प्रकार शोभाहीन हो गई है जिस प्रकार पुण्य क्षीण हो जाने पर आकाश से भ्रष्ट हुई कोई तारिका धरती पर आकर प्रभावविहीन हो गई हो।" ४. भाग्य (देव या कृतान्त) तथा काल
___ भाग्य या कृतान्त भी दार्शनिकों का एक मुख्य विचार-बिन्दु है जिसका सम्बन्ध मौलिक रूप से जीव के शुभाशुभ कर्मों से ही है। भाग्य के विभिन्न पर्याय मिलते हैं, जैसे-अदृष्ट, दैव, प्रारब्ध, नियति, कृतान्त, अपूर्व, फलदायक शुभाशुभ पूर्वकर्म ।"
___ वस्तुतः पूर्वजन्म के कर्म इस जन्म में देखे न जाने के कारण 'अदृष्ट' नाम से अभिहित होते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि 'अदृष्ट' विद्यमान होते हुए भी प्रत्यक्षदष्ट नहीं होता, अतः पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप कोई दुःख प्राप्त होता है तो हम उसे अदृष्ट या देव या भाग्य का नाम दे देते हैं। वाल्मीकि रामायण में देव के साथ-साथ 'कृतान्त' और 'काल' शब्द का प्रयोग भी भूरिशः हुआ है।
धैर्यवान् और पुरुषार्थी राम सामान्य मानव के समान सुख-दुःख, भय-क्रोध, लाभ-अलाभ इत्यादि के प्राप्त होने पर इसे दैव कृत मानते हैं। इसी प्रकार राज्य
खण्ड २२, अंक ३
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