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अपनाया गया हो, ऐसी चीज नहीं है। इस श्रेणी की अनेक बातों में शुद्ध राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ है। उदाहरण इस प्रकार हैं१. उत्तराखंड देस, तीके में जवालापुर नांवैनगर। तीकै में बांवनपाड़ पातसा
राज कर छ । चौरासी तो बजार, चौसठ खैड़, बार कोड़ घरां ही बसती । टीका बस छ। बांवन कीरोड़ केकाण, दस लाख हसती, पन कोड़ पायदल । चाकर चाकरी में हाजर खड़ा छ। सत्तर खांन, बोहत्तर अमराव, बंका देस, पासता सुख-सुख राज कर छ। (बयान समसेर री बात) पिरोजसा पातसा गढ गजनी राज कर छ। सु पांतसा विचारयो के बीजापुर
रो गढ लीजै, पात्तसोही लीजै। पातसा फौज ले ने बीजापुर रै गढ लागो। मास आठ ताईं गढ रौ रोळो हुवी। नै पर्छ गढ पिरोज पातसा लीधो। ने बीजापुर में दाखल हुवा। नै आय तखत पे बैठा। नै छत्र-चंवर ढुलै छ । (बहलीमां ही बात) ऊपर प्रस्तुत किए गए उद्धरणों की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्द (तपस्या, आयुध, देश, नक्षत्र, मास आदि) उर्दू के शब्द (गैर-हाजिर, खावंद, गयब, आब, दरियाव, पातसा आदि) और ठेठ राजस्थानी शब्द (धणी, गोठ, नीठी, छोरा, केकाण, रोळो आदि) प्रयुक्त हुए हैं। साथ ही उर्दू के शब्दों का राजस्थानी-करण भी हो चुका है । यह भाषा-मिश्रण ध्यान देने योग्य है।
इस प्रयोग से राजस्थानी बातों के वातावरण को स्वाभाविक स्वरूप देने की चेष्टा की गई है, जो उचित ही है। बातों में भील आदि विशिष्ट वर्गों के पात्र सामने आते हैं तो उनके मुख से भी कथोपकथन की यही स्वाभाविकता प्रस्तुत करने हेतु भीलों की बोली का प्रयोग देखा जाता है । यह राजस्थानी बातों की एक अपनी विशेषता है।
इस प्रकार सामाजिक समन्वय के साथ-साथ साम्प्रदायिक एकता का भी आश्चर्यजनक रूप सामने आया है, जो श्लाघ्य है।
हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) का इतिहास लिखने वाले विद्वानों को राजस्थानी बातों की ओर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । सतरहवीं शताब्दी में 'बातों' का लिखा जाना प्रारम्भ हो चुका था परन्तु इस कार्य को विस्तार अठारहवीं शती में मिला। इस प्रकार खड़ी बोली के विकास के अध्ययन हेतु राजस्थानी बातों की विशेष उपयोगिता है।
-(डॉ. मनोहर शर्मा) कैलाश निकुंज, भारती बगीची रानी बाजार, बीकानेर
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तुलसी प्रज्ञा
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