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'प्रवचनसार' में छन्द की दृष्टि से
पाठों का संशोधन
के० आर चन्द्र
"प्रवचनसार' आचार्यश्री कुन्दकुन्द की जैन सिद्धान्त संबंधी एक प्राचीन रचना और शौरसेनी आगम साहित्य का एक अंग माना जाता है। उस ग्रंथ को पढ़ने पर उसकी गाथाओं में अनेक जगह छन्दोभंग हो रहा है उसी को प्रकाश में लाकर उन गाथाओं में संशोधन सुझाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना गाथा (मात्रिक) छन्द में हुई है और उसके लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं
उसके (गाथा) हरेक पद्य में दो पाद होते हैं और हरेक पाद में बारहवीं मात्रा पर यति होती है। प्रथम पाद में ३० और दूसरे पाद में २७ मात्राएं होती हैं। प्रथम पाद में चार-चार मात्राओं के छः गण होते हैं जिसमें से छठे गण में चारों लघु होते हैं या जगण (लगुल) होता है। अन्तिम (छः मात्राएं) तीन गण दो-दो मात्राओं के होते हैं। दूसरे पाद में भी छः गण चार-चार मात्राओं के होते हैं और छठा गण एक लघु मात्रा का होता है और अन्तिम दो-दो मात्राओं के तीन वण होते हैं । __इस ग्रन्थ में तृतीया बहुवचन की विभक्तियां--हि और-हिं प्रयुक्त हैं, परंतु अनेक स्थलों पर-हिं के प्रयोग (गुरु) से छन्दोभंग हो रहा है। ऐसे प्रयोग कहां पर सही हैं या कहां पर गलत हैं यह नीचे दर्शाया जा रहा है ।* १. तृतीया बहुवचन की विभक्ति-हि के सही प्रयोग, अर्थात लघु वर्ण के रूप में प्रयोग(i) अ. १, गाथा ५७ का द्वितीय पाद
उवलदं/तेहि/कधं/पच्चक्खं/अप्पणो/होदि ।
यहां पर अन्तिम --दि (अर्थात् लघु) को गुरु माना जाना चाहिए। (ii) अ. २, गाथा ४४ का प्रथम पाद
लोगालोगेसु/णभो/धम्माधम्मेहि/आददो/लोगो। (iii) अ. ३, गाथा ३ द्वितीय पाद
समणेहि/तं/पि/पणदो/पडिच्छ/मं/चेदि/अणुगहिदो। (iv) अ. ३, गाथा ६९ का प्रथम पाद
णिग्गंथो/पच्चइदो/वट्ठदि/जदि एहिगेहि/कम्मेहिं ।
*देखिए 'प्रवचनसार', संपा. ए. एन. उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९६४ ।
खण्ड:२२, अंक ३
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