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गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥२ गीता सभी प्राणियों के प्रति हेतुरहित दया भाव का उपदेश देती है और सभी प्राणियों के प्रति हेतुरहित दयाभाव रखने वाला पुरुष ही देवी सम्पदा से युक्त माना जाता है । सर्वथा भय का अभाव, अन्तःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवत्पूजा अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण, वेदशास्त्रों के पठन-पाठन पूर्वक भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिये कष्ट सहन करना, शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता, मन-वाणी-शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ तथा प्रिय भाषण करना, अपना अपकार करने वाले पर क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरामता, किसी की भी निन्दा न करना, सब प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर-भीतर की शुद्धि, किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब देवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं ।
४. मनुस्मृति में अहिंसा की अवधारणा मनुस्मृति सदाचार-पालन का उपदेश देती है । उसके अनुसार अन्तरात्मा को सुख पहुंचाने वाला कर्म ही अहिंसा है जिस कर्म को करने से अन्तरात्मा को परितोष होता है उस कर्म को सदा प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये और उसके विपरीत कर्म को सदा परिवजित कर देना चाहिये
यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः ।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥" आचार्य, प्रकृष्ट रूप से वक्तृता करने वाले, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गाय और समस्त तपश्चर्या करने वाले पुरुषों की कभी भी हिंसा (मानसिक सन्ताप) नहीं करनी चाहिये--
आचार्य च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम् ।
न हिंस्याद् ब्राह्मणान्गाश्च सर्वाश्चैव तपस्विनः ॥" ___ आचार से ही मनुष्य बड़ी आयु को प्राप्त किया करता है । आचार शुद्ध होने से ही अभीष्ट सन्तति की प्राप्ति होती है । आचार से ही अक्षय धन का लाभ और बुरे लक्षणों का नाश होता है । बुरे आचार वाला पुरुष संसार में निन्दित हो जाता है। ऐसा दुष्ट आचार वाला व्यक्ति निरन्तर दुःखों को भोगने वाला, अल्प आयु वाला और रोगयुक्त हो जाता है । समस्त सुलक्षणों से हीन भी पुरुष यदि सदाचार वाला होता है और श्रद्धापूर्वक देखने वाला तथा किसी की निन्दा एवं बुराई न करने वाला हो तो वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है -
सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः । श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ।।२५
खण्ड २२, अंक ३
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