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बार अभ्यास करता है वह सभी पापों से छूट जाता है----
हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः । ऋग्वेदं धारयन्विप्रो नैगः प्राप्नोति किंचन ।। ऋक्संहिता त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः ।
साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः ।। मनुस्मृति का कहना है कि मनुष्य को मानस-दुष्कर्म, वाणी-दुष्कर्म तथा शारीरिक-दुष्कर्म-इन त्रिविधि दुष्कर्मों का फल शरीर से ही भोग्य है और उन-उन दुष्कर्मों से व्यक्ति विभिन्न निकृष्ट योनियों को प्राप्त होता है। दूसरे का धन लेने की बात, अन्याय सोचना, चित्त में दूसरे का अनिष्ट सोचना, मिथ्या अभिनिवेश करना-- ये चारों प्रकार के अशुभ फल देने वाले मानस-कर्म हैं। कठोर और झूठ बोलना, दूसरे के दोषों को बताना और बिना अभिप्राय के वचन बोलना-ये वाणी के दुष्कर्म अशुभ फल देने वाले हैं। न दी हुई वस्तु को बलपूर्वक ले लेना, बिना विधान के हिंसा करना और परस्त्री का सेवन करना---ये तीन प्रकार के शारीरिक दुष्कर्म हैं । मन से किये हए कर्म का फल मन से, वाणी का किया हुआ वचन से और देह से किये हुए कर्म का फल देह से ही भोगना पड़ता है । शरीर से उत्पन्न कर्म-दोषों के फलों से मनुष्य स्थावरता, वाचिक दोषों से पक्षी और मृगत्व का तथा मानस दोषों से चांडालादि जाति को प्राप्त होता है
___ शारीरजः कर्मदोषयति स्थावरतां नरः ।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसरन्त्यजातिताम् ।। हिंसा करने वाले कच्चे मांस खाने वाले गिद्ध आदि की योनि को प्राप्त करते हैं । सभी प्राणियों में अपने को और सभी प्राणियों को अपने में देखता हुआ मनुष्य स्वराज्य अर्थात् ब्रह्मस्व को प्राप्त होता है
सर्व भूतेषु चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि ।
समं पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधिगच्छति ॥" अतः मनुस्मृति कहती है कि सनातन वेदशास्त्र ही सभी प्राणियों का भरणपोषण करता है इसीलिए यह जीवों का उत्तम पुरुषार्थ साधन है।
५. गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा की अवधारणा-भारतीय चिन्तकों में महात्मा गांधी का अनन्य स्थान है। वे शास्त्रीय दार्शनिक नहीं, अपितु व्यावहारिक जीवन के लिये एक नवीन दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले महान् विचारक हैं । इस जगत् के लिये गांधीजी के दो महान् सन्देश हैं-सत्य के प्रति निष्ठा तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रेम । उनका मानना है कि मानव-जीवन की आधारशिला नैतिकता पर टिकी है।
गांधीजी की नीति-मीमांसा में अहिंसा का सर्वोच्च स्थान है। अहिंसा को वे परम धर्म मानते हैं। उनका कहना है कि जब आप सत्य को ईश्वर के रूप में जानना चाहें तो उसका एक मात्र उपाय प्रेम तथा अहिंसा है । प्रेम के रूप में अहिंसा सभी गुणों की जननी है । अहिंसा का स्थूल अर्थ किसी भी जीव की हत्या न करना है।
खण्ड २२, अंक
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