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आचार्य कुन्दकुन्द की काव्य-कला
- उदयचंद्र जैन
आचार्य कुन्दकुन्द मूलतः अध्यात्मकला के प्रवीण आचार्य हैं। उनका समग्र चिन्तन विशुद्ध आत्मा का दर्पण है, जिसमें वस्तु-स्वरूप की यथार्थदृष्टि प्रतिबिम्बित होती है । उन्होंने जो कुछ लिखा, वह सब उनकी स्वानुभूति का रस है। महावीर के वचनों की अमृतमयी सरिता में अवगाहन करके उन्होंने पहले स्वयं को अमृतत्व पान करने योग्य बनाया, फिर जिनशासन के धर्मरथ की बागडोर थामकर उसे जन-जन तक ले जाने का प्रयास किया। वह दो हजार वर्ष के बाद भी जीवन्त है और जन-जन को विशुद्ध आत्म तत्त्व के दर्शन करा रहा है।
आचार्य ने अपने ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत (आर्ष प्राकृत) में की है जो सब गाथा छन्द में हैं। गाथा छन्द के साथ अनुष्टुप, उपजाति, चपला, विपुला, गाहू, स्कंधक आदि का प्रयोग भी हुआ है।
छन्द, अलंकार और सूक्तों को आधार बना कर यहां उनकी काव्य-कला पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात किया गया है१. गाथा छंद
पढमं वारहमत्ता, बीए अट्ठारहेहिं संजुत्ता । जह पढमं तह तीअं, दह पंच विभूसिआ गाहा ॥
-प्राकृत पंगलम्, ५४ जिसके प्रथम चरण में १२ एवं १८ मात्राएं और द्वितीय चरण में १२ एवं १५ मात्राएं होती हैं, वह गाथा छन्द है-१२,१८ । १२,१५ । यथा
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो॥
-प्रव०७
गाथा के भेद
लच्छी रिद्धी बुद्धी, लज्जा विज्जा खमा अ देहीआ। गोरी धाई चुण्णी, छाआ कंती महामाई ॥
-प्रा० ५०, ६. कित्ती सिद्धी माणी, रामा गाहिणी विसा अ वासीआ। सोहा हरिणी चक्की, सारसि कुररी सिही अ हंसीआ ॥
-प्रा. ५०, ६१
बण्ड २२ मंक ३
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