Book Title: Tulsi Prajna 1996 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ मनुस्मृति का सन्देश है कि समस्त प्राणियों को पीड़ा न पहुंचाते हुए परलोक सुधारने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार धीरे-धीरे धर्म का उसी प्रकार संचय करना चाहिये जिस प्रकार दीमक धीरे-धीरे मिट्टी की दीवार खड़ी कर देती है । दृढ़ता के साथ कर्म करने वाला, मृदु, दांत और क्रूर आचारों में निवास न करता हुआ, हिंसा से रहित और दान तथा दम-इस प्रकार के व्रत वाला पुरुष स्वर्ग को जीत लेता है। जो मनुष्य अधार्मिक हो और जिसके पास मिथ्या धन हो तथा जिसकी रति नित्य हिंसा में ही रहा करती हो वह इस लोक में कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् । हिसारतश्च यो नित्यं नेहासो सुखमेधते ॥" मनुस्मृति में कतिपय पशु-पक्षियों के मांस-भक्षण का निषेध है । कच्चे मांस खाने वाले गिद्ध आदि और गांव-घर में रहने वाले कबूतर आरि पक्षियों का मांस नहीं खाना चाहिये । जिनके नाम का निर्देश न किया हुआ हो ऐसे एक खुर वाले घोड़े और गधे आदि अभक्ष्य हैं । टिटहरी पक्षी का मांस भी वजित है । चटका, गौरैया, पपीहा, हंस, चकवा, ग्राम-कुक्कट, बत्तख, रज्जुवाल, जलकाक, सुग्गा और मैना इन पक्षियों का मांस ब्राह्मण को नहीं खाना चाहिये । कठफोड़ा और जिनके चंगुल झिल्ली से जुटे हों या जल-मुर्गा, नख से विदीर्ण कर खाने वाला बाज आदि और पानी में डूबकर मछली खाने वाला पक्षी, बकुला, वध स्थान का मांस और सूखा मांस वर्जित है। बगुला, बलक, द्रोणकाक, खञ्जन, मछली खाने वाला, जल जीव (मगर), ग्राम्यशूकर और सब प्रकार की मछली नहीं खानी चाहिए। मनुस्मृति की मान्यता है कि मांस न खाना अश्वमेघ यज्ञ करने के बराबर है। जो अपने सुख की इच्छा से अहिंसक जीवों को मारता है वह जीवन में या जन्मान्तर में कहीं सुख नहीं पाता । जो जीवों को बान्धने, मारने या क्लेश देने की इच्छा नहीं करता, वह सब जीवों का हित चाहने वाला अत्यन्त सुख पाता है । जो किसी जीव को दुःख नहीं देता वह जिस धर्म को मन से चाहता है, जो कर्म करता है, जिस पदार्थ को चाहता है, वह उसे अनायास ही प्राप्त होता है । जीवों की हिंसा बिना किये कभी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता । पशुओं का वध करना स्वर्ग-प्राप्त्यर्थ नहीं होता इसलिये मांस खाना छोड़ देना चाहिये । मांस की उपत्ति को और जीवों के बध-बन्धन को अच्छी तरह सोचकर सब प्रकार के मांस-भक्षण को त्याग देना चाहिये । जो विधि को छोड़कर पिशाच की तरह मांस नहीं खाता वह संसार में सबका प्यारा होता है और रोग से पीड़ित नहीं होता। मारने की आज्ञा देने वाला, जीव को खण्ड-खण्ड करके खाने वाला, मारने वाला, बेचने और मोल लेने वाला, पकाने वाला परोसने वाला और खाने वाला ये आठों घातक हैं । जो देवता और पितरों का पूजन किये बिना दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाता है उससे बढ़कर दूसरा पापी नहीं है । जो प्रत्येक वर्ष, सौ वर्ष तक अश्वमेघ यज्ञ करता है और जो बिल्कुल ही मांस नहीं नहीं खाता-इन दोनों का पुण्य फल बराबर है । फल, मूल और मुनियों के हविष्यान्न १८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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