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वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं, जो कि वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानी जन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाले तामसी स्वभाव को ही धारण किये हुए हैं। परन्तु हे अर्जुन ! दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्मा जन हैं वे तो मेरे को सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षर स्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरन्तर भजते हैं
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमनव्ययम् ॥" गीता के अनुसार निश्चय करने की शक्ति, तत्त्वज्ञान, अमूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में रखना, मन का निग्रह, सुख, दुःख, उत्पत्ति, प्रलय, भय, अभय, अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति-इस प्रकार ये प्राणियों के. नाना प्रकार के भाव भगवत्कृपा से ही होते हैं । इसलिये भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह भी मैं ही हूं, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है जो मेरे से रहित होवे
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।।२० जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित एवं स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार रहित सुख-दुःख की प्राप्ति में सम और क्षमावान् है तथा जो ध्यानयोग में युक्त हुआ निरन्तर लाभ-हानि में सन्तुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए भगवान् में दृढ़ निश्चय वाला है वह भगवान् में अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला भक्त भगवान् को प्रिय है ।
गीता की मान्यता है कि जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है वही सही देखता है, क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है और वह परम गति को प्राप्त होता है । यह पुरुष जिस काल में भूतों के पृथक्पृथक् भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है उस काल में सच्चिदानन्दद्मन ब्रह्म को प्राप्त होता है---
___ यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ।। गीता के अनुसार समस्त भूतों को धारण करने की शक्ति परमात्मा में ही है। भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान । मैं ही पृथिवी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस स्वरूप चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं १८२
तु नसी प्रज्ञा
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