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लभन्ते ब्रह्मानिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वधा यतात्मनः सर्वभूतहिते रताः ।।२५ गीता सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप ब्रह्म (वासुदेव) को देखने का उपदेश देती है। भगवान् श्रीकृष्ण छठे अध्याय में अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में बर्फ में जल के सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्णभूतों को आत्मा में देखता है। जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूं और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है । जो एकीभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है वह योगी सब प्रकार रहता हुआ भी मेरे में ही स्थित है । हे अर्जुन ! जो योगी अपनी सदृश्यता से सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब में सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥९। गीता की मान्यता है कि ब्रह्म रूप वासुदेव ही समस्त भूतों का जीवन तथा सनातन कारण है । सातवें अध्याय में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जल में मैं रस हूं तथा चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं। सम्पूर्ण वेदों में ओङ्कार हूं, आकाश में शब्द तथा पुरुषों में पुरुषत्व हूं। पृथिवी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूं। सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूं और तपस्वियों में तप हूं । हे अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं । हे भरत भेष्ठ ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल हूं और सब भूतों में धर्म (शास्त्र) के अनुकूल काम हूं
बलं बलवतां चाहं कामरागविवजितम् ।
धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। २७ गीता के अनुसार संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुःखादि द्वंद्व रूप मोह से सब प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरण करने वाला महान् वायु सदा ही आकाश में स्थित है वैसे ही भगवान् के संकल्प द्वारा उत्पत्ति वाले होने से सम्पूर्ण भूत भगवान् में ही स्थित हैं । कल्प के अन्त में समस्त भूत भगवत्प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि में उन भूतों को भगवान् फिर रचता है। वह अपनी त्रिगुणमयी माया को अंगीकार करके स्वभाववश परतंत्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बारम्बार उनके कर्मानुसार रचता है
प्रकृति स्वामष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥२० गीता मानती है कि अज्ञानी तथा तामसी मनुष्य परमात्मा को तुच्छ समझते हैं, किन्तु महात्मा उस परमात्मा का निरन्तर भजन करते हैं । इस कारण भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर रूप में मेरे भाव को न जनाने
खंड २२, अक ३
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