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इस मार्ग में किसी मनुष्य को, मृग को, भैसे को, पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जन्तु को जाते हुए देखा है ? यदि देखा हो तो हमें बताओ कि वे किस ओर गये हैं, हमें दिखाओ।' ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें कुछ बतलाए, न मार्ग-दर्शन करे, न ही उनकी बात को स्वीकार करे. बल्कि कोई उत्तर न देकर उदासीनतापूर्वक मोन रहे अथवा जानता हुआ भी उपेक्षा भाव से 'मैं नहीं जानता' ऐसा कहे । फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे-आउसंतो समणा ! अवियाइं एत्तो पडिपहे पासह मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसवं वा जलचरं वा से तं मे आइक्खह दंसेह । तं णो आइक्खेज्जा णो दंसेज्जा णो तस्सं तं परिजाणेज्जा तुसिणीए उवेहेज्जा जाणं ति वदेज्जा । ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा ।
साधु को कभी भी हिंसा के लिये उद्यत मनुष्य को कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल, फल, बीज, हरित, जल, अग्नि, जौ, गेहूं, रथ, बैलगाड़ी, स्वचक्र, परचक्र, गांव, राजधानी, ग्रामयाचक इत्यादि के बारे में जानकारी नहीं देनी चाहिये। साधु या साध्वी के भिक्षु जीवन की यही सर्वाङ्गपूर्णता है कि वह सभी अर्थों में सम्यक् प्रवृत्तियुक्त , ज्ञानादि सहित होकर संक. पालन में सदा प्रयत्नशील रहे--एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वठेहिं समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि ।१९ ____ यदि कोई चोर अपना कर्तव्य जानकर साधु को गाली गलौज करे, अपशब्द कहें, मारे, पीटे, हैरान करे, यहां तक कि उसका वध करने का प्रयत्न करे और उसके वस्त्रादि को फाड़ डाले, तोड़-फोड़ कर फेंक दे तो भी वह साधु ग्राम में जाकर लोगों से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि 'हे आयुष्मन् गृहस्थ ! इन चोरों ने हमारे उपकरण छीन लिये हैं अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें कोसा है, मारा-पीटा है, हमें हैरान किया है, हमारे उपकरणादि नष्ट कर दिये हैं।' ऐसे कुविचारों को साधु मन में भी न लाये और न वचन से व्यक्त करे । किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और अनासक्त होकर तथा आत्मभाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे --- एतप्पगारं मणं वा वई वा णो पुरतो कट्ट विहरेज्जा । अप्पुस्सुए जाव समाहीए ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा ।
३. श्रीमद्भगवद्गीता में अहिंसा की अवधारणा-भगवद् गीता की दृष्टि में अहिंसा वह कर्म है जिसके करने से व्यक्ति को किसी प्रकार का भय उद्वेग नहीं होता, जबकि हिंसा वह कर्म है जिसके करने से व्यक्ति में प्रतिपल भय तथा उद्वेग होता है। इसी विचार से भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता के बारहवें अध्याय में कहते हैं कि जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति देखकर सन्तप्त होना), भय और उद्वेगादिकों से रहित है वह भक्त मेरे को प्रिय है -
___ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१ भगवद्गीता सात्त्विक तप पर बल देती है । त्रिविध तपों में अहिंसा शारीरिक
खण्ड २२, अंक ३
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