________________
इति युक्तं विरोधाभावाद्विरोधे हि बलीयसा दुर्बलं बाध्यते न चेहास्ति कश्चिद्विरोधो भिन्नविषयत्वात् । .... न चानर्थ वेतुत्वऋतूपकारकत्वयोः कश्चिद्विरोधोऽस्ति हिंसा हि पुरुषस्य दोषमावक्ष्यति ऋतोश्चोपकरिष्यतीति । "
२. जैन दर्शन में अहिंसा की अवधारणा जैन दर्शन आचार की शुद्धता को विशेष महत्त्व देता है और उसी से मोक्ष की प्राप्ति मानता है । उमास्वाति के अनुसार सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्षमार्ग है- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।"
जिस रूप में जीव आदि पदार्थों की व्यवस्था संसार में है, अर्हत् ने उसी रूप में उनके तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन किया है उन उक्तियों में श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन कहलाता है -- येन रूपेण जीवाद्यर्थो व्यवस्थितस्तेन रूपेणार्हता प्रतिपादिते तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेशरहितत्वाद्यपरपर्यायं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।१२ जिस स्वभाव से जीव आदि पदार्थ व्यवस्थित हैं उसी रूप में मोह तथा संयम से रहित होकर उन्हें जानना सम्यग्ज्ञान है येन स्वभावेन जीवादय पदार्था व्यवस्थितास्तेन स्वभावेन मोहसंशयरहितत्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । संसार के कर्मों के नष्ट हो जाने पर उद्यत, श्रद्धावान् तथा ज्ञानवान् पुरुष का पाप में ले जाने वाली क्रियाओं से निवृत्त हो जाना ही सम्यक् चारित्र है - संसरणकर्मोच्छित्तावुद्यतस्य श्रद्दधानस्य ज्ञानवतः पापगमनकारण क्रियानिवृत्तिः सम्यक् चारित्रम् ।
भगवान् महावीर ने सिद्धों को नमस्कार करके सम्यक् चारित्र अङ्गीकार किया था । उन्होंने सम्यक् चारित्र को अङ्गीकार करते समय सभी पाप कर्मों को स्वयं के लिये अकरणीय माना था - सव्वं मे अकर णिज्जं पाव कम्मं ति कट्टु सामाइयं चरितं पडवज्जइ । १५ भगवान् महावीर चारित्र अङ्गीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गये । सभी देवों ने जब यह सुना तो हर्ष से पुलकित हो उठे - डिवज्जित्तु चरितं अहोणिसं सव्वपाणभूतहितम् । सोला पयता देवा णिसामेति ॥
सम्यक् चारित्र के लिये पांच व्रतों का पालन आवश्यक है । ये पांच व्रत हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । प्रमाद या असावधानी से भी जब मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चरों और लता, वृक्ष आदि स्थावरों के प्राणों का विनाश नहीं किया जाता है तो वह अहिंसा कहलाती है
न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । चरणां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम् ।।
७
जैन दर्शन में अहिंसा पर सर्वाधिक बल दिया गया है। मनुष्य को मन, वचन और कर्म से हिंसा का परित्याग करना चाहिये । हिंसा न स्वयं करनी चाहिये न करानी चाहिये, न उसका समर्थन करना चाहिए । कृत, कारित तथा अनुमतप्रकार की हिंसा त्याज्य है ।
- सब
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि साधु को हिंसाजनक प्रश्नों में मौन रहना चाहिये । संयमशील साधु या साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए रास्ते में सामने से कुछ पथिक निकट आ जायें और वे यों पूछे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने
१७८
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org