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अहिंसा की दार्शनिक पृष्ठभूमि
मंगलाराम
किसी भी विषय पर दार्शनिक चितन करना मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है। 'सर्वं वेदात् प्रसिद्धति' की अवधारणा के अनुसार समस्त दर्शनों का बीज वैदिक ज्ञान में निहित है । भारतीय दर्शनों में नीति-मीमांसा के अन्तर्गत कई पक्षों पर विचार हुआ है। उनमें अहिंसा-दर्शन भी एक विवेच्य विषय रहा है। जहां एक ओर वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु-पक्षियों की बलि को हिंसा नहीं माना जाता है, वहीं दूसरी ओर जनदर्शन मन, वचन और कर्म तीनों से ही अहिंसा कर्म को करणीय मानकर उसके पालन का प्रतिपल सन्देश देता है । गीता 'सर्वभूतहिते रताः' का सन्देश देती है, तो मनुस्मृति हिंस्य कर्मों के त्याग तथा हिंस्य कर्म हो जाने पर उसके प्रायश्चित्त का भी उपाय बताती है। महात्मा गान्धी सत्य, ईश्वर और अहिंसा में कोई भेद नहीं करते।
१. अति-परम्परा में अहिंसा की अवधारणा-यह संसार दुःखबहुल है तथा विद्यमान दुःखों की निवृत्ति के लिये व्यक्ति अनेक उपाय करता है। उन उपायों में मुख्य रूप से लौकिक (औषधि इत्यादि) तथा वैदिक (यज्ञ इत्यादि) उपाय माने जाते हैं। स्वर्ग प्राप्ति के लिये किये जाने वाले वायु इत्यादि यज्ञ शुद्धि एवं आत्यन्तिक शांति से रहित हैं। कारण कि ये यज्ञ अविशुद्धि नामक दोष से ग्रस्त हैं । जैसे 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' अथवा 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' यहां वायव्य याग निरूपित जो पशुवध निष्ठ कारणता है वही अविशुद्धि है । अर्थात् होम, देवपूजन, दक्षिणादि प्रदान करना इत्यादि रूप जो पुण्योत्पादक साध्य कर्म हैं उनके लिये किये जाने वाले वायुयज्ञ में पशु हिंसा ही अविशुद्धि कहलाती है । तात्पर्य यह है कि होम, देवपूजन इत्यादि पुण्यकर्म भी यज्ञ में ही होते हैं, वहां हिंसा होने से जो पाप से सम्बन्ध होता है वही यज्ञ की अविशुद्धता है।
जिस प्रकार यज्ञ के अंगभूत दक्षिणा इत्यादि पुण्य कर्मों द्वारा परलोक के लिये सुख पैदा किया जाता है उसी प्रकार यज्ञ के अंगभूत पशुवध, बीजवध इत्यादि रूप पापकर्मों के द्वारा परलोक के लिये दुःख भी पैदा किया जाता है । इस प्रकार वैदिककर्म यज्ञ इत्यादि दुःखमिश्रित सुख के जनक हैं । ___ यदि कोई यह प्रश्न करे कि यज्ञ में विहित बीजवध कोई वध नहीं है, क्योंकि उसमें प्राणों का अभाव है । तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि 'वृक्षः शरीरम्, आध्यात्मिक-वायुसम्बन्धवत्वात्, मनुष्यादिशरीरवत्' इस अनुमान द्वारा वृक्ष के शरीर होने पर 'वृक्ष: आध्यात्मिकवायुसम्बन्ध वान्, वृद्धिमत्वात्, भग्नक्षतावयवसंदोहणवत्त्वाद्वा'
खंड २२, अंक ३
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