Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 39
________________ जन-साधारण को ज्ञान का प्रकाश देने की-और पथ-भ्रष्ट धर्मान्धों का हृदय वदलने की. जिससे भारत का पाप-भार हल्का होता और पाप को दुर्गन्ध देश से दूर होती। उस समय धन-जन पूर्ण विशाल नगरी 'वैशाली' गणतन्त्र शासन की केन्द्र बनी हुई थी। उस लिच्छवी गणतन्त्र शासन के गणनायक थे राजा चेटक' । चेटक की गुणवतो त्रिलोक सुन्दरी पुत्रियों में से एक का नाम था 'त्रिशला । त्रिशला का कुण्डलपुर (कुण्ड ग्राम) के शासक ज्ञातवंशीय क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के साथ उत्तम तिथि पर पाणि-ग्रहण हुआ था, रानो त्रिशला राजा सिद्धार्थ को बढ़त प्रिय थी, अतः उसका अपर नाम प्रियकारिणी भी प्रसिद्धि पा चका था, त्रिशला सर्वगुण-संपन्ना आदर्श नारी थी। एक समय रात्रि को जव रानी त्रिशला नंद्यावर्त राजभवन में, आनन्द से सो रही थी. तव उसे रात्रि के अन्तिम पहर में सोलह सुन्दर स्वप्न दिखायी दिये: १. हाथी, २. बैल, ३. सिंह, ४. लक्ष्मी ५. दो मालाएं, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. दो मलियाँ, ९. जल से भरा सुवर्ण कलश, १०. तालाव, ११. समद्र, १२. सिहासन, १३. देवों का विमान, १४. धरणेन्द्र का भवन, १५. रत्नों का ढेर, १६. नि म अग्नि। वह रात्रि आषाढ़ मुदी ६ की थी, उस समय हम्त नक्षत्र था। स्वप्नों को देखकर त्रिशला रानी की नांद म्खल गई। 'इन म्वानों का क्या फल होगा ? ' त्रिशला को यह जानने को बहुत उन्कण्ठा हुई। अतः प्रभात समय के कार्य समाप्त करके म्नान करने के अनन्तर वह 'मां चंडवा मावो।-पात्र. च. उ. १६८ चेटकम श्रावको।' विपष्टि. १.६१८ 'नविनय विक्रमादि गुणपंटकने निप चेटक गजंगमनुल मौभाग्य भद्रेनिमिद मुभद्रंग ।। -प्राचप्ण, वर्धमान. पगण १५६/५३ माता-यम्य-प्रभान कम्पिति बृपभो मिहपीतं च लक्ष्मी । मानायुग्मं गणांक विऊपयुगल मृणं कुम्भी नटाकं ॥ पायोधि सिंह गेट मुग्गणनिभृतं व्योमयानं मनोज । बादामी नागवामं मणि गण शिखिनी त जिनं नौमि भक्या।। ॥१॥

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